सिद्धार्थ उपनिषद Page 166
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गुरुनानकदेव जी पूरे विश्व के हैं . गुरुनानकदेव जी की कहानी को कबीर साहब से शुरू करना होगा . जैसे गंगा को ठीकसे समझना है तो हिमालय से बात शुरू करनी होगी . कबीर साहब भ्रमणशील थे घूमते-घामते अपने 20 भक्तों की टोली के साथ पहुंच जाते हैं पंजाब . और तभी एक बहुत प्रतिभाशाली बालक को देखते हैं . उम्र करीब 15 साल बुलाते हैं और पूंछते है कहां जा रहे हो . बालक नानकदेव जी कहते है पिता जी ने कुछ रुपये दिए हैं और कहा है कुछ लाभ का सौदा करना , कुछ अच्छा सौदा करना . कबीर साहब ने कहा मेरे पास भी कुछ माल है देखना चाहोगे . नानकदेव जी ने कहा दिखाइए ! कबीर साहब ने कहा यह माल आंख खोल कर नहीं देखा जाता है . आंख बंद करके देखा जाता है . नानकदेव आंखें बन करके बैठ गए . कबीर साहब ने उनके सिर पर हाथ रखा और कहा कि सुनो !!! और उन्हें अनाहत नाद की दीक्षा उसी समय दे दी . कबीर साहब ने कहा कैसा लगा माल ? नानकदेव ने खा पिता जी ने तो कहा था बेटा जाओ अच्छा सौदा करो , लेकिन आपने मुझे सच्चा सौदा दे दिया . नानकदेव जी ने 20 रुपये की पूंजी उनके चरणों में रख दी और इस तरह नानकदेव दीक्षित हुए .इसलिए मैं बात कबीर साहब से शुरू करता हूं . कबीर साहब का जन्म जेठ की पूर्णिमा में हुआ था . सूरज की तरह थे . बड़ा प्रकाश था , बड़ी चमक थी . मगर तपिश भी बहुत थी - " पाथर पूजै हरि मिले , तो मैं पूजूँ पहाड़ . तातै यह चक्की भली , पीस खाए संसार . " ऐसी चोट करे वाली बातें थी , ऐसी व्यंग करने वाली बातें थी . लोग तिलमिला गए . जैसे सूरज खूब चमके तो प्रकाश तो होता है मगर उसके साथ-साथ तपिश भी उतनी होती है .
तुमको जानकार आश्चर्य होगा कि कबीर साहब ने आध्यात्म को बड़ी ऊंचाई दी . आध्यात्म को सत्-चित-आनंद से जोड़ा , निराकार से जोड़ा . उन्होंने आकार को करीब-करीब छोड़ ही दिया . केवल निराकार उनका प्रभु है . और इस तरह आध्यात्म को जो उन्होंने ऊंचाई दी - उसका नाम " प्रभुपद " है . कबीर साहब आध्यात्म को प्रभुपद तक ले गए .
नानकदेव जी का अवतरण कार्तिक-पूर्णिमा को हुआ . कार्तिक-पूर्णिमा शीतल चंद्रमा के लिए , शीतल चांदनी के लिए प्रसिद्ध है . नानकदेव जी का व्यक्तित्व भी कार्तिक-पूर्णिमा के चाँद की तरह था . बड़ी शीतलता है , बड़ी मिठास है , बड़ा सौंदर्य है . इसलिए नानकदेव केसाथ हजारों लोग खड़े हो सके . नानकदेव जी का सौंदर्य क्या है ? कबीर साहब उनके गुरु थे उनकी पूंजी तो उनके साथ थी ही ... मैं हमेशा यह बात कहता हूं सुपुत्र वही है जो पिता के धन को और बढ़ाये , पिता के साम्राज्य को और बढ़ाये . अगर पिता के कमाए हुए धन को ही पुत्र खाता रहे , पिता के राज्य की सीमाओं को बस उतना ही रखे या उसे कम करे , तो वह पुत्र सुपुत्र नहीं हो सकता है . इस मामले में नानकदेव जी ने अपनी पूरी कृतज्ञता व्यक्त कर दी . कबीर दास जी से जो उन्हें धन प्राप्त हुआ था , उस धन को उन्होंने खूब और आगे बढ़ाया , उनके राज्य की सीमाओं को और भी आगे बढ़ाया . और उन्होंने सत्-चित-आनंद में सत्यम-शिवम-सुन्दरम को भी जोड़ दिया . " प्रभुपद " को और आगे ले जाकर " ब्रह्मपद " तक पहुँचाया . अब सत्-चित-आनंद और सत्यम-शिवम-सुन्दरम नानकदेव जी का ब्रह्म है .
कबीर साहब ने सिर्फ हुक्मी को महत्व दिया . नानकदेव जी ने हुकमी और हुकुम दोनों को साध लिया . इसलिए नानक देव जी ने " प्रभुपद " को " ब्रह्मपद " की ऊंचाई दी , जहां सृष्टि भी सम्मिलित है . केवल हुकुमी नही . हुकुमी और हुकुम दोनों का सम्मान है . कबीर साहब को इस सृष्टि में कोई सौंदर्य दिखाई नहीं दिया , पर नानकदेव जी को इस सृष्टि में भी खूब सौंदर्य दिखाई दिया .
और वह आगे ओशो में प्रकट हुई . तुमको शायद आश्चर्य होगा ओशो ' अगहन-पूर्णिमा ' को अवतरित हुए . जेठ-पूर्णिमा में आते है कबीर साहब . कार्तिक-पूर्णिमा को अवतरित होते हैं नानकदेव जी , चाँद की शीतलता लेकर आते हैं नानकदेव जी . और बात आगे बढ़ती है : " रजनीश चन्द्र मोहन", "रजनीश " और " चन्द्र " . और अवतरित होते हैं ' अगहन-पूर्णिमा ' को . अब चाँद की शीतलता और बढ़ जाती है . एक अद्भुत बात मैं तुम्हें बताता हूं जो मैंने अपने अनुभव अपने शोध से जाना है . कि वास्तव में ओशो कोई और नहीं थे बल्कि नानकदेव का ही अवतरण हुआ था ओशो में . और मुझे आश्चर्य लगता है उनके नाम " रजनीश चंद्र " के आगे " मोहन " और जुड़ गया था . यह अकारण नहीं है . इसलिए ओशो ने आध्यात्म को " ब्रह्म-पद " के भी आगे " गोविन्द-पद " तक पहुंचा दिया . ' मोहन ' गोविन्द को कहते हैं .
" गोविन्द-पद " क्या है ? गोविन्द-पद , ब्रह्म-पद के आगे जाता है . नानकदेव जी ने सत्-चित-आनंद के साथ सत्यम-शिवम-सुन्दरम को उंचाई दी थी पर उसमें उत्सव थोड़ा रह गया था . और जब ओशो बनकर वे आये तो उन्होंने उत्सव को भी जोड़ दिया . सेलिब्रेटिव existence . गोविन्द क्या रास है ! , क्या नृत्य है ! क्या उत्सव है !
इस आध्यात्म में मैं कहूंगा कि नानकदेव जी कबीर और ओशो के मध्य की श्रृंखला हैं . कबीर साहब ने आध्यात्म को वैराग्य पर खड़ा कर दिया था , रागियों के लिए कबीर साहब में कोई आशा नहीं . लेकिन नानक देव जी ने वैरागी और रागी दोनों को आशा दे दी .
ओशो का आध्यात्म ' जीवन ' पर आधारित है उसका बीज गुरु नानकदेव जी ने बोया था ; जिसकी flowering , जिसका विकास , जिसका उत्कर्ष जो तुम आज ओशो में देखते हो . और ओशो के बाद निश्चित ही ओशोधारा उसी परम्परा को आगे ले जा रही है .
और मेरे लिए तो गुरु नानकदेव जी का विशेष महत्व है . 13 जनवरी 1997 की मध्य-रात्रि में उन्होंने मुझे " ओंकार " की दीक्षा दी . और तब से आज तक निरंतर उनकी कृपा की बारिश मुझ पर हो रही है . गुरु नानाकदेव जी से हमारा एक समझौता हुआ है कि मैं जितना बाटूंगा वह उसका दोगुना मुझे देंगे . मुझसे मेरे लोग कहते हैं आप इतना क्यों दिए जा रहे हैं ? क्योंकि इसी में मेरा फायदा है , मैं जितना तुम्हें दूंगा उसका दूना मुझे मिलेगा . इसलिए हम भी मुक्त-कंठ से तुम्हें लुटाते चले जाते हैं . तो ओशोधारा के लिए मेरे अपने लिए गुरुनानक देव जी का बहुत महत्व है . मैं जानता हूं उनका जो अनुदान है पूरी मानवता के लिए वह अनंत-अनंत काल तक याद किया जाएगा .
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