घबड़ा मत। जरा भी चिंता न कर। जो उसे देता है उसे बहुत मिलता है - ओशो
घबड़ा मत। जरा भी चिंता न कर। जो उसे देता है उसे बहुत मिलता है - ओशो
सत्संग चलने लगा । और एक दिन अनूठी घटना घटी। चराने गए थे गाय-बैल को, दो फकीर — दो मस्त फकीर वहां से गुजरे। उनकी मस्ती ऐसी थी कि कोयलों की कुहू-कुहू ओछी पड़ गई। पपीहों की पुकार में कुछ खास न रहा । झीलें देखी थीं, गहरी थीं, मगर इन आंखों के सामने कुछ भी नहीं । झीलें देखी थीं, शांत थीं, मगर यह शांति कुछ बात ही और थी। यह किसी और ही लोक की शांति थी।यह पारलौकिक थी । बैठ गए उनके पास, वृक्ष के नीचे महात्मा सुस्ताते थे ।
उनमें एक था बुल्लेशाह – एक अद्भुत फकीर, जिसके पीछे दीवानों का एक पंथ चला : बावरी। दीवाना था, पागल ही था। थोड़े-से पागल संत हुए हैं । इतने प्रेम में थे कि पागल हो गए। ऐसे मस्त थे कि डगमगाकर चलने लगे। जैसे शराब पी हो—–शराब जो ऊपर से उतरती है; शराब जो अनंस् से आती है !एक तो उनमें बुल्लेशाह था, जिसे देखकर जगजीवन दीवाने हो गए। कहते हैं बुल्लेशाह को जो देखता था वही दीवाना हो जाता था। मां-बाप अपने बच्चों को बुल्लेशाह के पास भेजते नहीं थे। जिस गांव में बुल्लेशाह आ जाता, लोग अपने बच्चों को भीतर कर लेते थे। खबरें थीं कि वह दीवाना ही नहीं है, उसकी दीवानगी संक्रामक है। उसके पीछे बावरी पंथ चला, पागलों का पंथ चला। पागल से कम में परमात्मा मिलता भी नहीं। उतनी हिम्मत तो चाहिए ही । तोड़कर सारा तर्कजाल, छोड़कर सारी बुद्धि-बुद्धिमत्ता, डुबाकर सब चतुराई - चालाकी जो चलते हैं वे ही पहुंचते हैं; उन्हीं का नाम पागल है।
एक तो उसमें बुल्लेशाह था और दूसरे थे गोविंदशाह : बुल्लेशाह के ही एक संगी-साथी । दोनों मस्त बैठे थे। जगजीवन भी बैठ गया—छोटा बच्चा । बुल्लेशाह ने कहा : 'बेटे, आग की जरूरत है, थोड़ी आग ले आओ।' वह भागा। इसकी ही प्रतीक्षा करता था कि कोई आज्ञा मिल जाए, कोई सेवा का मौका मिल जाए। सद्गुरु के पास वे ही पहुंच सकते हैं जो सेवा की प्रतीक्षा करते हैं – कोई मौका मिल जाए । सेवा का कोई मौका मिल जाए। और जुड़ने का नाता, और कोई उपाय भी तो नहीं है। आग ही नहीं लाया जगजीवन, साथ में दूध की एक मटकी भी भर लाया। भूखे होंगे, प्यासे होंगे। आग ले आया तो दोनों ने अपने हुक्के जलाए । दूध ले आया तो दूध पीया । लेकिन बुल्लेशाह ने जगजीवन को कहा कि दूध तो तू ले आया, लेकिन मुझे ऐसा लगता है, किसी को घर में बताकर नहीं आया।बात सच थी। जगजीवन चुपचाप दूध ले आया था, पिता को कह नहीं आया था। थोड़ा ग्लानि भी अनुभव कर रहा था, थोड़ा अपराध भी अनुभव कर रहा था कि लौटकर पिता को क्या कहूंगा? पर
बुल्लेशाह ने कहा : ‘घबड़ा मत। जरा भी चिंता न कर। जो उसे देता है उसे बहुत मिलता है।'
वे तो दोनों फकीर कहकर और चल भी दिए। जगजीवन सोचता घर चला आया कि 'जो उसे देता है उसे बहुत मिलता है, इसका मतलब क्या?' घर पहुंचा, जाकर मटकी उघाड़कर देखी, जिसमें से दूध ले गया था। आधा दूध तो ले गया था, मटकी आधी खाली छोड़ गया लेकिन मटकी भरी थी । यह तो प्रतीक कथा है, सांकेतिक है। यह कहती है, जो उसके नाम में देते हैं, उन्हें बहुत मिलता है। देनेवाले पाते हैं, बचानेवाले खो देते हैं। हसीद फकीर झुसिया ने कहा है : 'जो मैंने दिया, बचा। जो मैंने बचाया, खो गया।— ये उसके आखिरी वचन थे अपने शिष्यों के लिए कि देना । जितना दे सको देना । जो हो वही देना। देने में कभी कंजूसी मत करना क्योंकि मैंने जो दिया, वह बचा।
- ओशो
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