जिसने प्रकृति को सुना है वह सद्गुरुओं को भी समझ सकता है - ओशो
जिसने प्रकृति को सुना है वह सद्गुरुओं को भी समझ सकता है - ओशो
जब तक तुम खुली रात आकाश के नीचे, घास पर लेटकर तारों को न देखो, तुम्हें परमात्मा की याद आएगी ही नहीं। जब तक तुम पतझड़ में खड़े सूखे वृक्षों को फिर से हरा होते बसंत में न देखो, फिर नए अंकुर आते न देखो, जीवन के आगमन के ये पदचाप तुम्हें सुनाई न पड़े, तब तक तुम परमात्मा की याद न करोगे। या तुम्हारा परमात्मा शाब्दिक होगा, झूठा होगा । परमात्मा शब्द में परमात्मा नहीं है, रहस्य की अनुभूति में परमात्मा है।यह रहस्य जगने लगा होगा : क्या है यह सारा विस्तार ! मैं कौन हूं? मैं क्या हूं ? इस हरी-भरी सुंदर दुनिया में मेरे होने का प्रयोजन क्या है ?
ऐसे कुछ प्रश्न – अनपढ़, बेबूझ जगजीवन के हृदय को आंदोलित करने लगे होंगे।साधुओं की तलाश शुरू हो गई। जब फुरसत मिल जाती तो साधुओं के पास पहुंच जाते। सुनते। जिसने प्रकृति को सुना है वह सद्गुरुओं को भी समझ सकता है। क्योंकि सद्गुरु महाप्रकृति की बातें कर रहे हैं। जो प्रकृति की पाठशाला में बैठा है वह महाप्रकृति के समझने में तैयारी कर रहा है, तैयार हो रहा है । परमात्मा क्या है ? इस प्रकृति के भीतर छिपे हुए अदृश्य हाथों का नाम : जो सूखे वृक्षों पर पत्तियां ले आता है; प्यासी धरती के पास जल से भरे हुए मेघ ले आता है; जो पशुओं की और पक्षियों की भी चिंता कर रहा है; जिसके बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता। अगोचर, अदृश्य, फिर भी उसकी छाप हर जगह है। दिखाई तो नहीं पड़ता पर उसके हाथों को इंकार कैसे करोगे? इतना विराट् आयोजन चलता है, इस सब व्यवस्था से इंकार कैसे करोगे ? फिर उस व्यवस्था को तुम प्रकृति का नियम कहो कि परमात्मा कहो, यह केवल शब्द की बात है
- ओशो
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