गुरु हाथ रखता ही तब है जब तुम पीछा छोड़ते ही नहीं - ओशो
गुरु हाथ रखता ही तब है जब तुम पीछा छोड़ते ही नहीं - ओशो
मटकी भरी देखकर जगजीवन को होश आया कि कि अपूर्व लोगों को मैं छोड़कर चला आया हूं। भागा। फकीर तो जा चुके थे मगर फिर अब रुकने की कोई बात न थी। भागता ही रहा, खोजता ही रहा । मीलों दूर जाकर फकीरों को पकड़ा। जानते हो, क्या मांगा ? बुल्लेशाह से कहा, मेरे सिर पर हाथ रख दें। सिर्फ मेरे सिर पर हाथ रख दें। जैसे मटकी भर गई खाली, ऐसा आशीर्वाद दे दें कि मैं भी भर जाऊं। मुझे चेला बना लें | छोटा बच्चा ! बहुत समझाने की कोशिश की बुल्लेशाह ने कि तू लौट जा। अभी उम्र नहीं तेरी। अभी समय नहीं आया। लेकिन जगजीवन जिद पकड़ गया । उसने कहा, मैं छोडूंगा नहीं पीछा । हाथ रखना पड़ा बुल्लेशाह को ।
गुरु हाथ रखता ही तब है जब तुम पीछा छोड़ते ही नहीं। तो ही हाथ रखने का मूल्य होता है। और कहते हैं, क्रांति घट गई। जो महावीर को बारह साल मौन की साधना करने से घटी थी, वह बुल्लेशाह के हाथ रखते जगजीवन को घट गई। अंतर बदल गया। काया पलट गई। चोला कुछ से कुछ हो गया। उस हाथ का रखा जाना- जैसे एक लफट उतरी । जला गई जो व्यर्थ था। सोना कुंदन हो गया । एक क्षण में हुआ। ऐसी क्रांति तब हो सकती है जब मांगनेवाले ने सच में मांगा हो । यूं ही औपचारिक बात न रही हो कि मेरे सिर पर हाथ रख दें। हार्दिकता से मांगा हो, समग्रता से मांगा हो, परिपूर्णता से मांगा हो, रोएं - रोएं से मांगा हो । मांग ही हो, प्यास ही हो और भीतर कोई दूसरा विवाद न हो; शक न हो, संदेह न हो । निस्संदिग्ध मांगा हो कि मेरे सिर पर हाथ रख दें। मुझे भर दें जैसे मटकी भर गई! छोटा बच्चा था; न पढ़ा न लिखा। गांव का गंवार चरवाहा। मगर मैं तुमसे फिर कहता हूं कि अक्सर सीधे - सरल लोगों को जो बात सुगमता से घट जाती है वही बात जो बुद्धि बहुत भर गए हैं और इरछे-तिरछे हो गए हैं, उनको बड़ी कठिनाई से घटती है । युगपत क्रांति हो गई। जिसको झेन फकीर ‘सडन इनलाइटमेंट' कहते हैं, एक क्षण में बात हो गई— ऐसी जगजीवन को हुई ।
- ओशो
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