जहां काव्यशास्त्र है, वहां कविता नहीं - ओशो
जहां काव्यशास्त्र है, वहां कविता नहीं - ओशो
यह तुमने मजे की बात देखी कि विश्वविद्यालय में जो लोग काव्य पढ़ाते हैं उनसे कविता पैदा नहीं होती । कविता उनसे बचकर निकल जाती है। शेक्सपियर को पढ़ाते हैं और कालिदास को पढ़ाते हैं और भवभूति को पढ़ाते हैं, मगर कविता उनसे बचकर निकल जाती है। कविता कभी प्रोफेसरों के गले में वरमाला पहनाती ही नहीं । काव्यशास्त्र को ज्यादा जान लेना- - और कविता के प्राण निकल जाते हैं । कविता तो फलती है— फूलती है— जंगलों में, पहाड़ों में, प्रकृति में और प्राकृतिक जो मनुष्य हैं, उनमें । जगजीवन के जीवन का प्रारंभ वृक्षों से होता है, झरनों से, नदियों से, गायों से,बैलों से। चारों तरफ प्रकृति छायी रही होगी । और जो प्रकृति के निकट है वह परमात्मा के निकट है। जो प्रकृति से दूर है वह परमात्मा से भी दूर हो जाता है । अगर आधुनिक मनुष्य परमात्मा से दूर पड़ रहा है, रोज-रोज दूर पड़ रहा है, तो उसका कारण यह नहीं है कि नास्तिकता बढ़ गई है। जरा भी नहीं नास्तिकता बढ़ी है। आदमी जैसा है ऐसा ही है। पहले भी नास्तिक हुए हैं, और ऐसे नास्तिक हुए हैं कि उनकी नास्तिकता के ऊपर और कुछ जोड़ा नहीं जा सकता।
चार्वाक ने जो कहा है तीन हजार साल पहले, इन तीन हजार साल में एक भी तर्क ज्यादा जोड़ा नहीं जा सका है। चार्वाक सब कह ही गया जो ईश्वर के खिलाफ कहा जा सकता है। न तो दिदरो ने कुछ जोड़ा है, न मार्क्स ने कुछ जोड़ा है, न माओ ने कुछ जोड़ा है। चार्वाक तो दे गया नास्तिकता का पूरा शास्त्र; उसमें कुछ जोड़ने का उपाय नहीं है। या यूनान में एपिकुरस दे गया है, नास्तिकता का पूरा शास्त्र । सदियां बीत गई हैं, एक नया तर्क नहीं जोड़ा जा सका है।यह सदी कुछ नास्तिक हो गई है, ऐसा नहीं है ।
फिर क्या हो गया है ? एक और ही बात हो गई है जो हमारी नजर में नहीं आ रही है; प्रकृति और मनुष्य के बीच संबंध टूट गया है। आज आदमी आदमी की बनाई हुई चीजों से घिरा है; परमात्मा की याद भी आए तो कैसे आए ? हजारों-हजारों मील तक फैले हुए सीमेंट के राजपथ हैं, जिन पर घास भी नहीं उगती । आकाश को छूते हुए सीमेंट के गगनचुंबी महल हैं । लोहा और सीमेंट—उसमें आदमी घिरा है । उसमें फूल नहीं खिलते । और आदमी जो भी बनाता है उसमें कुछ भी विकसित नहीं होता। वह जैसा है वैसे ही का वैसा होता है। आदमी जो बनाता है वह मुर्दा होता है । और जब हम मुर्दे से घिर जाएंगे तो हमें जीवन की याद कैसे आए?
- ओशो
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