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    अपने भीतर विराजमान परम सत्य को जीतते ही सारी दुनिया जीत ली जाती है- ओशो

     

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    अपने भीतर विराजमान परम सत्य को जीतते ही सारी दुनिया जीत ली जाती है- ओशो 

    दुनिया को जीतने के दो ढंग हैं: एक सिकंदर का ढंग है और एक वृद्ध का। सिकंदर दुनिया जीतने चलता है और हारा हुआ मरता है, खाली हाथ जाता है। और युद्ध दु निया नहीं जीतते, अपने भीतर विराजमान परम सत्य को जीतते हैं-और उसको जीतते ही सारी दुनिया जीत ली जाती है।

    मैने सुना है... पुरानी कथा है-

    शिवजी अपने बच्चों के साथ खेल रहे हैं-गणेश और कार्तिकेय । और उन्होंने खेल-खेल में कहा कि तुम दोनों जाओ और दुनिया का चक्कर लगाकर लौटो, जो पहले आ ज एगा, उसे इनाम मिलेगा। कार्तिकेय तो एकदम रफूचक्कर हो गया। इधर उसने सुनी कि भागा! गणेशजी वैसे भी भाग नहीं सकते। ऐसा शरीर लेकर कहां भागेगे ! और कार्तिकेय से कहां जीत पाएंगे ! लेकिन पुरस्कार गणेश को मिला। कसे मिला यह पुरस् कार? यह कथा प्यारी है और बड़ी सूचक है। गणेश कहीं नहीं गए। शिवजी ने खुद भी कहा कि उठो भी, कुछ दो-चार कदम तो चलो ! कार्तिकेय चक्कर लगाने चला ग या है, सारे विश्व का भ्रमण करके वह आता ही होगा। गणेशजी ने कहा आप फिक्र छोड़े। वे उठे और उन्होंने शिवजी का एक चक्कर लगाया और कहा कि यह मेरा सा री दुनिया का चक्कर हो गया। आपका चक्कर लगा लिया, फिर क्या शेष वचा?

    कार्तिकेय जब तक आया तब तक पुरस्कार बंट चुका था। शिव ने कहा: कार्तिकेय, में क्या कर सकता हूँ? तू हार गया दांव, गणेश जीत गया। मुझे तो शक था कि यह हारेगा। मगर इसने बुद्धों की राह पकड़ ली।

    कार्तिकेय गया सिकंदर के मार्ग पर। गणेश गए वुद्ध के मार्ग पर। सारी दुनिया का चक्कर लगाओ तो बड़ी लंबी यात्रा है: शायद पूरी हो भी न। किसक ी हो पायी है? महत्त्वाकांक्षी की यात्रा हमेशा अधूरी रह जाती है। वासना की दौड़ क भी पूरी न हुई है, न होगी। वासना दुष्पूर है। लेकिन जो स्वयं को पा लेता है, जो पर मात्मा को पा लेता है, उसने सब पा लिया; उसे पाने को क्या रहा? मालिक को पा लिया, तो उसकी सारी मालकियत अपनी हो गयी। 

    - ओशो 

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