मेरे संन्यास की नव धारणा - ओशो
मेरे संन्यास की नव धारणा - ओशो
मैं उस संन्यास के पक्ष में नहीं हूं। मेरे संन्यास की नव धारणा है। नया प्रत्यय है मेरा संन्यास । जहां हो, जैसे हो, वैसे ही रहो। वहीं जागरण आ सकता है, कहीं और जाने की जरूरत नहीं। क्योंकि जागरण तुम्हारा स्वभाव है। ज़रा अपने को हिलाना-डुलाना है। ज़रा अपने को संकल्पवान करना है। ज़रा अपना समर्पण करना है। अपने अहंकार को विसर्जित करना है। और वसंत आया। वसंत आने में देर नहीं। बस इतनी सी बात यहां घटी है। हमने वसंत को पुकारा है और वसंत आने लगा है। संन्यास मेरे लिए त्याग नहीं है, भोग की परम कला है। संन्यास मेरे लिए परमात्मा को भोगने की विद्या है। परमात्मा के साथ नाचने, गाने, गुनगुनाने का आयोजन है। मैं लोगों को जीवन का विषाद नहीं सिखा रहा हूं, जीवन का आह्लाद ! पुरानी तथाकथि त संन्यास की धारणा जीवन-विरोधी थी। उसका मौलिक स्वर निषेध का था। मेरा मौ लिक स्वर विधेय का है। जिओ, जी भर कर जिओ ! एक-एक पल परिपूर्णता से जिओ ! फिर कहीं और स्वर्ग नहीं है। फिर यहीं स्वर्ग उतर आता है। जो परिपूर्णता से जीत [ है, उसकी श्वास-श्वास में स्वर्ग समा जाता है।
- ओशो
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