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    जिसको पाने की आकांक्षा है, उसका त्याग झूठा है -ओशो

     

    Renunciation of what one aspires to achieve is false - Osho

    जिसको पाने की आकांक्षा है, उसका त्याग झूठा है -ओशो 

    हम है चालबाज, हम है होशियार। होशियारी ही हमारी डुबा रही है। हमारी होशियारी ही हमारी फांसी बनी है। हम परमात्मा के साथ भी हिसाब किताब से च लते हैं। उसके साथ भी हम सौदा करते हैं। मैं इतना दूंगा तो तुम कितना दोगे? मैं इतना पुण्य करूंगा तो मुझे स्वर्ग में मिलेगा? मैं इतना दान दूंगा तो इसका कितना फ ल होगा? और तुम्हें शोषण करनेवाले पंडित हैं, पुरोहित हैं। वे कहते हैं : यहां एक पैसा दो, वहां करोड़गुना पाओगे।

    यह तो धर्म न हुआ, कुछ लाटरी की बात हो गयी। और तब लोभी इस तरह के धर्म में उत्सुक होते हैं-प्रेमी नहीं, लोभी। और प्रेम का लोभ से क्या नाता है! प्रेम जानत ा है समर्पण, मांगता नहीं हालांकि मिलता है बहुत । करोड़गुना ही क्यों, अनंत अनंत गुना मिलता है! मगर मिलने की आकांक्षा प्रेम में नहीं होती। प्रेम तो सिर्प देकर ही धन्यभागी है; चढ़ा कर कृतकृत्य है, कृतार्थ है। स्वीकार किया परमात्मा ने मेरी भेंट को, मेरी आहुति को, इतना ही क्या कम है! इतना आनंद बहुत है। इतना आनंद भी समाएगा नहीं। छाती छोटी पड़ जाएगी, पूरा आकाश छाती में उतर आएगा।

    प्रेमी देने में मस्त होता है। लोभी देता भी है अगर, तो आंख के कोनों से देखता रहत ा है कि वापिस मिल रहा है कि नहीं मिल रहा है। और ज्यादा मिल रहा है कि नहीं मिल रहा है। जितना लगाया है, कम से कम व्याज सहित तो मिलना ही चाहिए! अ और जिसको व्याज की चिता है, वह निर्व्याज नहीं हो पाता, सरल नहीं हो पाता। जिस को पाने की आकांक्षा है, उसका त्याग झूठा । त्याग तो सच्चा तभी है जब त्याग अपने आप में अपना लक्ष्य है: कोई और गंतव्य नहीं, कोई और मंजिल नहीं, जब त्याग अ पने में अपना आनंद है।

    -ओशो 

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