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    सच्चा प्रेम मुक्ति है - ओशो

     

    True love is salvation - Osho

    सच्चा प्रेम मुक्ति है - ओशो 

    मुल्ला नसरुद्दीन घर आया। अखबार पढ़ने बैठ गया। सभी पति बैठते हैं। यह पति-धर्म है कि घर में आए कि जल्दी से अखबार उठाया। क्योंकि और कहां छिपें? कोई जगह नहीं मालूम होती जहां छिप जाएं। पत्नी ने चौतरफा राज किया हुआ है। और घूम रही है वह सब लिए। ये बेचारे अखबार, चाहे पढ़ें, चाहे न पढ़ें...। मल्ला नसरुद्दीन पढ ही नहीं रहा था, क्योंकि जाहिर था, उलटा अखबार पकड़े बैठा था। पत्नी तो भनभना गई। उसने कहा कि हद हो गई। तुम अखबार पढ़ नहीं रहे हो। तुम उलटा अखबार लिए बैठे हो तो पढ़ कैसे रहे हो? और उसने तो एकदम शोरगुल मचा दिया कि अब तुम्हें मुझसे प्रेम ही नहीं रहा। पत्नियों के तर्क का तो कोई हिसाब ही नहीं। कहां अखबार! उलटा ही पढ़ रहा है, तो पढ़ने दो। उलटी खोपड़ी है समझो। इससे तुम्हारा क्या बिगड़ रहा है? बेचारा सिर्फ उलटा अखबार पढ़ रहा है, निर्दोष। किसी का कोई नुकसान नहीं कर रहा है, न कोई हिंसा कर रहा है, न कोई हड़ताल कर रहा है, न कोई घिराव कर रहा है, न कोई आंदोलन कर रहा है; चुपचाप बैठा उलटा अखबार पढ़ रहा है। इसमें किसी का क्या बिगाड़ रहा है? वीणा ही जैसा, जैसे कि दीवाल के सामने बैठी। उलटा अखबार पढ़ रहा है--ध्यान कर रहा है।

            मगर पत्नी तो बिगड़ पड़ी, 'तुम अखबार पढ़ नहीं रहे हो। तुम सिर्फ मुझसे बचना चाहते हो। तुम्हें मेरा चेहरा देखने में कष्ट होता है। और पहले तुम मुझसे कहते थे कि अहा! तू क्या है! पूर्णिमा का चांद भी तेरे सामने फीका है! और अब उलटा अखबार पढ़ रहे हो। तुम्हें मुझसे अब जरा भी प्रेम नहीं रहा।' और वह तो दहाड़ मार कर रोने लगी। पत्नियों का क्या भरोसा, कब क्या करने लगें! इसीलिए तो पुरुष निरंतर सदियों से कहता रहा है--स्त्री को कोई नहीं समझ सकता। स्त्री को समझ सकते हो, गलती बात कह रहे हो; पत्नी को कोई नहीं समझ सकता। स्त्री को समझने में क्या कठिनाई है? सीधा-सादा मामला है, कोई ऐसी अड़चन नहीं। मगर पत्नी को समझना बहुत कठिन है। और पत्नी तुम्हीं बना बैठे। तुम पति बन गए। पति का मतलब मालिक, तो बेचारी पत्नी क्या करे? पत्नी का मतलब, जो पति से तनीत्तनी रहे। रहेगी ही! जब तुम पति बन कर बैठ गए तो वह क्या करे! वह तनीत्तनी रहेगी। 

            पत्नी तन गई, जोर से रोने लगी कि अब तुम्हें मुझसे प्रेम ही नहीं रहा। नसरुद्दीन ने अखबार बंद किया और कहा, 'फजलू की मां! कैसी बातें कर रही हो? अरे मुझे प्रेम है। हजार बार कहता हूं, कसम खाकर कहता हूं, अल्लाह की कसम खाकर कहता हूं कि मुझे प्रेम है। और तेरा चेहरा पूर्णिमा के चांद से भी ज्यादा सुंदर है। और तेरे शरीर की सुगंध फूलों से भी ज्यादा महकदार है। फिर-फिर कहता हूं कि मुझे तुझसे प्रेम है। और अब यह अपना मुंह बंद कर और मुझे अखबार पढ़ने दे!' क्या करो, मजबूरी है तो कहना पड़ता है प्रेम है। मगर असलियत को कहां तक छिपाओगे? वह निकल ही आती है: 'अब अपना मुंह बंद कर। अब बहुत हो चुकी बकवास। और मुझे अखबार पढ़ने दे। अरे, शांति से एक घड़ी भर तो बैठ लेने दे। थका-मांदा दफ्तर से आता हूं। और इधर प्रेम का राग! न समय का कोई ध्यान, न ऋतु का कोई सवाल, बस प्रेम का राग छेड़ो!' आदमी सिर्फ कह रहा है कि प्रेम। कहना पड़ रहा है। बचपन से लेकर बुढापे तक यह सिलसिला जारी है। सबके पीछे मूल कारण यह है कि हम प्रेम पर कब्जा करने की कोशिश करते हैं। मां-बाप करने की कोशिश करते हैं, फिर पति-पत्नी करने की कोशिश करते हैं, फिर बच्चे करने की कोशिश करते हैं। हम प्रेम को एक-दूसरे पर मालकियत का साधन बनाते हैं, जब कि सच्चा प्रेम मुक्ति है।

    - ओशो 

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