धर्म हैं अतीत - ओशो
धर्म हैं अतीत - ओशो
धार्मिकता एक बगावत है, एक विद्रोह है। और धर्म परंपराएं हैं। धर्म हैं अतीत, जिनका वक्त जा चुका, जो कभी के मर चुके हैं और जिनकी लाशों को तुम ढो रहे हो। उन लाशों में कभी प्राण थे, यह सच है। मगर जब प्राण थे तब वे लाशें नहीं थीं; तब वे भी धार्मिकताएं थीं। बुद्ध के पास जो घट रहा था वह धार्मिकता थी। और अब बौद्ध धर्म के नाम पर जो दुनिया में है वह केवल लाश है। उसका रंग-रूप, उसका रंग-ढंग, उसका आकार-प्रकार बिलकुल वैसा ही है जैसे बुद्ध की धार्मिकता का था। बस एक बात की कमी है, उसमें प्राण थे और यह निष्प्राण है। उसमें दिल धड़कता था, उसकी सांसें चलती थीं; और अब इसकी कोई सांसें नहीं चलती और कोई दिल नहीं धड़कता। उस वीणा में संगीत था, उसके तार अभी जिंदा थे; और अब इसके तार कभी के टूट गए हैं, अब इसमें कोई संगीत नहीं उठता। और यही सारे धर्मों के साथ हुआ है।
मैं धर्म को कोई नाम नहीं देना चाहता। मैं तो सतत बगावत सिखा रहा हं; विद्रोह अतीत से, विद्रोह परंपरा से, विद्रोह शास्त्रों से, विद्रोह शब्दों से, विद्रोह मन से। फिर जो शेष रह जाता है वह अनाम है, विशेषण-शून्य है। उसी शून्य का नाम धार्मिकता है। उसी शून्यता में पूर्ण का फूल खिलता है। तुम पूछते हो: 'आपके धर्म का आराध्य कौन है? आराधना क्या है?' मैं किसी व्यक्तिवाची ईश्वर को नहीं मानता। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है जो ऊपर बैठा है सातवें आकाश पर और इस दुनिया को चला रहा है। परमात्मा को व्यक्ति की भाषा में सोचना ही बुनियादी रूप से गलत है। भगवान नहीं, भगवत्ता की भाषा में सोचो।
हां, जो भगवत्ता को उपलब्ध हो जाता है उसको हमने भगवान कहा है, वह और बात। बुद्ध को भगवान कहा है, यद्यपि बुद्ध ने भगवान से इनकार किया है कि कोई भगवान नहीं। इसी अर्थों में इनकार किया है जो मैं कह रहा हूं, कि कोई व्यक्ति नहीं है जो सारे जगत को चला रहा है और तुम्हारी खोपड़ी पर तुम्हारी किस्मत लिखता है कि तुम टैक्सी ड्राइवर होओगे, कि तुम एम जी रोड पर कपड़े की दुकान खोलोगे, कि तुम पुण्य नगरी पूना में भीख मांगोगे, कि गुंडागर्दी करोगे। और अगर ऐसा कोई परमात्मा है तो बिलकुल पागल है। क्या-क्या बकवास लिखता है! कोई परमात्मा नहीं है। भगवत्ता एक अनुभव है, व्यक्ति नहीं। और जब भी तुम अपनी चेतना की पूर्ण शांति को अनुभव करते हो और उस शांति में उठते हुए प्रेम के संगीत को पहचानते हो, तब भगवत्ता का अनुभव होता तो तुम मत पूछो मुझसे कि मेरा आराध्य कौन है। मेरा आराध्य कोई भी नहीं। और इसलिए यहां कोई आराधना नहीं है। जब आराध्य ही नहीं तो आराधना क्या?
- ओशो
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