जिसे आप जीवन कहते हैं वह रोज-रोज कब्र में उतर जाने के सिवाय और कुछ भी नहीं है - ओशो
जिसे आप जीवन कहते हैं वह रोज-रोज कब्र में उतर जाने के सिवाय और कुछ भी नहीं है - ओशो
अगर हम आंख खोल कर देख लें! हम कहते हैं कि महावीर के पास राज्य था, बुद्ध के पास राज्य था, वे अपने राज्य को ठोकर मार कर चले गए, लेकिन हम राज्य की खोज में लगे हैं। अगर हम देख सकें कि जिनके पास धन है, आंख खोल कर देख सकें कि उनके पास आनंद है? लेकिन हम धन की खोज में लगे हैं। जिसके पास पद है, प्रतिष्ठा है, अगर हम आंख खोल कर देख सकें तो पूछना पड़ेगा कि उनके भीतर शांति है? लेकिन हम भी पद और प्रतिष्ठा की खोज में लगे हैं। हम अंधे ही हो सकते हैं, क्योंकि जिन गङ्ढों में दूसरे गिरे हैं हम भी उन गड्ढों को खोज रहे हैं। तो हमारे पास आंखें हैं यह नहीं माना जा सकता।
आंख खोल कर देखने का अर्थ है जो चारों तरफ हो रहा है उसके प्रति सजग हो जाएं और अपने प्रति भी विचार कर लें कि जो चारों तरफ हो रहा है वह मेरे साथ भी होगा। निश्चित है उसका होना। अगर यह बोध दिख जाए, अगर यह दुख, यह पीड़ा, यह एक्झिस्टेंस, यह अस्तित्व की सारी की सारी संताप-स्थिति अनुभव हो जाए तो प्राण एकदम छटपटाने लगेंगे और यह खयाल होगा कि क्या अगर यही जीवन है तो जीवन व्यर्थ है या फिर कोई और जीवन हो सकता है? उसकी मैं खोज करूं। जब तक मुझे दिखाई न पड़े कि इस भवन में आग लगी है, तब तक मैं कैसे इस भवन के बाहर निकलने के लिए उत्कंठित हो सकता हूं! दूसरे मुझसे कहते हैं कि भवन में आग लगी है तो उनसे मैं कहूंगा कि ठहरिए, अभी चलता हूं। या उनसे कहूंगा, यह देखूगा कि मौका लगेगा तो बाहर आ जाऊंगा। या उनसे मैं कहूंगा कि विचार से मैं सहमत हो गया हूं कि मकान में आग लगी है, लेकिन अभी जरा उलझन है इसलिए बाहर आने में असमर्थ हूं।
दूसरे अगर मुझसे कहें तो। लेकिन अगर मुझे दिखाई पड़े, अगर मुझे दिखाई पड़े कि इस भवन में आग लगी है तो फिर इस भवन में मेरा एक भी क्षण रुकना असंभव है। आंख खोल कर देखें तो सारे जगत में, सारे संसार में आग लगी हुई दिखाई पड़ रही है। हर आदमी अपनी कब्र पर बैठा हुआ है, हर आदमी अपनी चिता पर चढ़ा हुआ है। और जो दूसरे को चिता पर चढ़ा हुआ देख रहा है, वह गलत देख रहा है। हर आदमी चिता पर चढ़ा हुआ है। हम सब चिता पर बैठे हुए हैं और उसकी आग धीरेधीरे इबाती जाती है; और एक दिन भस्मीभूत कर देगी; और एक दिन जला कर राख कर देगी। जन्म के दिन से ही हमारा मरण शुरू हो जाता है। उस दिन से ही हम चिता पर रख दिए गए। जिस दिन हम घर के पालने में रख दिए गए उस दिन हम चिता पर रख दिए गए। जिस दिन जमीन पर उतरे, उसी दिन हम कब्र पर भी उतर गए हैं। और हर आदमी जल रहा है। उसे बोध नहीं कि वह सारी दुनिया को देख रहा है लेकिन अपने नीचे नहीं देख रहा है कि वहां क्या हो रहा है। प्रतिक्षण आप मौत में उतरते जा रहे हैं। जिसे आप जीवन कहते हैं वह रोज-रोज कब्र में उतर जाने के सिवाय और कुछ भी नहीं है।
वह ग्रेज्युअल डेथ है; रोज-रोज मरते जाना है। यह समय-समय हम मर रहे हैं। इसे देखते हैं और तब एक घबराहट जीवन को पाने की पैदा होगी। अगर इसी को जीवन समझ लिया तो चूक जाएंगे उस जीवन से जो मिल सकता था। अगर इसी को सत्य समझ लिया तो चूक जाएंगे उस सत्य को जो हो सकता था। अगर यह मृत्यु दिख जाए जिसे हम जीवन समझते हैं और जिसे हम सत्य और वास्तविक समझते हैं, यह अवास्तविक और असत्य दिख जाए, तो सारे प्राण छटपटाते उसमें लग जाएं--किसी दूर, किसी अनंत छिपे हए रहस्य की खोज में। और जब जिज्ञासा न होगी, तब प्यास होगी। तब अभीप्सा होगी और वैसी अभीप्सा ही केवल तैयार करती है व्यक्ति को उसके साहस को; उसकी शक्ति को जुटा देती है।
- ओशो
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