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    तोतों के कारण कर्म और आचरण संदेह से भरा हुआ है - ओशो

     

    Karma and conduct are full of doubts because of parrots - Osho

    तोतों के कारण कर्म और आचरण संदेह से भरा हुआ है - ओशो 

    जब सिकंदर भारत से वापस लौट रहा था तो उसे खबर मिली कि एक ब्राह्मण के पास ऋग्वेद की मूल प्रति है। सिकंदर खुद तो बहुत उत्सुक नहीं था ऋग्वेद में, लेकिन उसका गुरु था अरस्तू, और जब सिकंदर चला था एथेंस से तो अरस्तू ने कहा था: कुछ चीजें मेरे लिए भी लेते आना। हो सके तो ऋग्वेद की एक प्रति ले आना; सुना है सबसे पुराना शास्त्र है हिंदुओं का। और बन सके, संभव हो सके, कोई संन्यासी राजी हो जाए तो किसी संन्यासी को ले आना। दोनों चेष्टाएं उसने की और दोनों में असफल हुआ। और बहुत कुछ ले गया। सोना, चांदी, हीरे-जवाहरात, बड़ी लूट, हजारों हाथी और ऊंटों पर लाद कर यह सब ले जाया गया। लेकिन ये दो चीजें जो अरस्तू ने बुलाई थीं, नहीं ले जा सका। एक संन्यासी से कहा तो उसने तो हंस दिया। उसने कहा, 'मैं अपना मालिक हूं। मुझे कौन है तू आज्ञा देने वाला? मैं अपनी आज्ञा से जीता हूं। परमात्मा भी मुझे आज्ञा दे तो मैं सुनने वाला नहीं हूं। मैं अपने ढंग, अपनी मौज का आदमी हूं। यह बेहूदी बात वापस ले ले!'

            सिकंदर तो आगबबूला हो गया। इस तरह की भाषा कोई उससे बोला नहीं था। उसने तलवार खींच ली। उसने कहा, 'अपने शब्द वापस लो, अन्यथा अभी गर्दन काट कर गिरा दूंगा।' वह संन्यासी हंसने लगा। सिकंदर के इतिहास लिखने वाले लोगों ने उसका नाम दंदामिस लिखा है; वह यूनानी रूप मालूम होता है। दंदामिस भारतीय नाम नहीं मालूम होता। हो सकता है दंडी साधु रहा हो, जो डंडा रखते हैं। और यह आदमी चाहे डंडा न भी रखता हो, मगर डंडा रखता था। रहा होगा कबीर जैसा आदमी। सिकंदर से ऐसी भाषा बोले, कबीर जैसा रहा होगा। जैसा कबीर कहते हैं: लिए लुकाठी! कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ। लट्ठ लिए हाथ खड़ा है कबीर और बाजार में खड़ा है कबीर। घर जो बारै आपना चले हमारे साथ! है किसी की हिम्मत, है कोई माई का लाल कि जला दे अपना घर, राख कर दे अपना घर और हमारे साथ हो ले।

            तो डंडा चाहे हाथ में न भी रहा होगा, मगर था डंडे वाला आदमी। सिकंदर से उसने कहा, 'चूक मत! मैं तो अपने शब्द वापस लूंगा नहीं। अरे जो दे दिया, क्या वापस लेना! दिया दान कहीं वापस लिया जाता है, यह क्या बात हुई? रही गर्दन काटने की बात, सो काट ले, अभी काट ले! जहां तक मेरा सवाल है, जमा तब की काट चुका हूं। जिस दिन जाना उसी दिन गर्दन कट गई। जिस दिन अपने को पहचाना उसी दिन जान लिया कि शरीर मुर्दा है। अब मुर्दे को और क्या मारेगा? मार ले, तुझे मारने का मजा मिल जाएगा और हमें भी देखने का मजा आ जाएगा। तू देखेगा गर्दन कटती हुई, जमीन पर गिरती हुई; हम भी देखेंगे। तू बाहर से देखेगा, हम भीतर से देखेंगे। देखने वाला जब मौजूद है तो गर्दन के कटने से कुछ भी बनता-बिगड़ता नहीं।' सिकंदर झेंपा, शर्माया, तलवार वापस म्यान में रखने लगा। उस फकीर ने कहा, 'अब क्या तलवार वापस रखता है? अरे निकली तलवार वापस रखी जाती है? मैं बोले शब्द वापस नहीं लेता, तू निकली तलवार वापस रखता है? शर्म खा! संकोच कर!' मगर ऐसे आदमी को कैसे मारना! ऐसे आदमी को मारा नहीं जा सका। 

            सिकंदर ने कहा, 'मुझे क्षमा करें। मुझे संन्यासियों से बात करने का कोई सलीका नहीं आता। आप पहले संन्यासी हैं। मैं सैनिक की भाषा बोलता हूं, सैनिकों से मिलता-जुलता हूं, मैं तो तलवार की भाषा समझता हूं। सम्राटों से मिला हूं, गर्दनें काटी हैं, अपनी कटवाने को तैयार रहा हूं। मैं वही जानता हूं। मुझे क्षमा कर दें। मगर तुम जैसा मैंने आदमी नहीं देखा। ठीक ही कहा था अरस्तू ने कि हो सके...क्योंकि यह बात असंभव है कि कोई संन्यासी आने को राजी हो। जो आने को राजी हो वह संन्यासी नहीं होगा। उसने ठीक कहा था। मुझे बिना संन्यासी ही जाना पड़ेगा।'

            तब उसने ऋग्वेद की तलाश शुरू की। एक ब्राह्मण के घर, खबर मिल गई, उसने घर घेर लिया कि ब्राह्मण कहीं भाग न जाए। ब्राह्मण से कहा। अब तुम फर्क देखो एक संन्यासी का और ब्राह्मण का! ब्राह्मण ने कहा, 'दे दूंगा, जरूर दे दूंगा।' घबड़ा गया। ये नंगी तलवारें घर को घेरे हुए। यूं जैसे लपटें लपलपाती हुई। ब्राह्मण तो घुटनों पर गिर पड़ा। उसने कहा कि जरूर दे दूंगा, लेकिन नियम है, व्यवस्था है कि रात भर देने के पहले मुझे पूजा करनी होगी; विदाई कर रहा हूं। और सुबह सूरज के ऊगने के साथ आपको किताब भेंट कर दूंगा। सिकंदर को बात समझ में आई कि कोई रिवाज है, पूजा है, पाठ है, कर लेने दो। अभी नहीं तो सुबह ; भाग कर जाएगा कहां, सब चारों तरफ तलवारें लगी हुई हैं! रात उसने अपने बेटे को पास बिठाया, आग जलाई और एक-एक पन्ना ऋग्वेद का पढ़ता गया और बेटे से कहा, 'तू सुन ले, ठीक से सुन ले, याद रख ले।' और जैसे ही पूरा पन्ना पढ़ लेता, उसको आग में डाल देता। 

            सुबह होते-होते जब सिकंदर घर में प्रविष्ट हआ, आखिरी पन्ना आग में डाला जा चुका था। सिकंदर हक्का-बक्का रह गया। उस ब्राह्मण से कहा, यह तुमने क्या किया? उसने कहा कि तुम्हें जो मैंने वायदा किया था, उससे मुकरूंगा नहीं। यह मेरे बेटे को तुम ले जाओ, इसको पूरा ऋग्वेद कंठस्थ है। सिकंदर को भरोसा न आया कि रात भर में ऋग्वेद जैसी बड़ी किताब एक ही बार सुने जाने पर कैसे कंठस्थ हो सकती है! उसने और ब्राह्मणों को बुलवाया, जांच करवाई और पाया कि उस लड़के को सब कंठस्थ है। संस्कृत, अरबी, लैटिन, ग्रीक, ये सारी पुरानी भाषाएं कंठस्थ करने की कला पर बड़ा जोर देती थीं। 

            इनका आग्रह यही था--बोध नहीं, स्मृति। जो जान ले, उसका मतलब यह नहीं था कि उसने पहचान लिया; उसका मतलब यह था कि उसे शास्त्र याद हैं और वह यंत्रवत उन्हें दोहरा देगा। और आज तो वैज्ञानिक कहते हैं कि एक-एक मस्तिष्क की स्मरण करने की क्षमता असीम है। एक मस्तिष्क सारी दुनिया के जितने पुस्तकालय हैं उन सबको कंठस्थ कर सकता है, इतनी एक मस्तिष्क के भीतर संभावना छिपी है। अभी बड़े-बड़े कंप्यूटर ईजाद किए गए हैं, लेकिन कोई भी कंप्यूटर मनुष्य के मस्तिष्क का मुकाबला नहीं कर सकता। करेगा भी कैसे, क्योंकि आखिर कंप्यूटर मनुष्य के मस्तिष्क की ईजाद है। कितना ही बड़ा कंप्यूटर बना लिया जाए, वह बनाएगा तो मनुष्य का मस्तिष्क। और बनाई गई चीज बनाए जाने वाले से कभी बड़ी नहीं हो सकती है। ये तोते थे। अब इन्हीं तोतों के कारण तो कर्म और आचरण संदेह से भरा हुआ है।

    - ओशो 

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