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    ब्रह्मज्ञानी परहिंसा नहीं करता तो आत्महिंसा कैसे करेगा - ओशो

     

    If a theologian does not do non-violence, how will he do self-violence - Osho

    ब्रह्मज्ञानी परहिंसा नहीं करता तो आत्महिंसा कैसे करेगा - ओशो 

    अब विचार के कचरे से जो भरा है वह किन्हीं और तोतों को दोहरा रहा है। हो सकता है तुमसे ज्यादा कुशल से ज्यादा ज्ञानी तोता हो, तुमसे ज्यादा शास्त्र घोंट-घोंट कर पी गया हो, तो जरूर तुम्हें कुछ समाधान पकड़ाएगा। मगर वे समाधान ही तुम्हारी सारी समस्याओं के कारण हैं। फिर नये संदेह उठेंगे। संदेह उठते ही रहेंगे, जब तक तुम अपने भीतर निर्विचार के आकाश का द्वार नहीं खोल लेते हो। निर्विचार के आकाश का द्वार खुला कि श्रद्धा का कमल खिला। और श्रद्धा का कमल जब तक न खिले तब तक संदेह पैदा ही होंगे। ये कांटे होंगे ही होंगे। वही ऊर्जा जो फल बननी है, दसरों के पीछे चल-चल कर कांटे बन जाती है। और जब अपने भीतर मुड़ती है तो वही जो जहर थी, अमृत बन जाती है। इस कीमिया को जो दे दे वही सदगुरु है। जो कांटों को फूलों में बदलने की कला सिखा दे, जो मन को अ-मन में बदलने का विज्ञान दे दे, जो इशारे कर दे कि विचार से कैसे निर्विचार हआ जा सकता है, जो ध्यान की तरफ तुम्हारे जीवन की दिशा को मोड़ दे--वही सदगुरु है, वही ब्राह्मण है। 

            यह तो ब्राह्मण की परिभाषा न हुई--विचारशील, तपस्वी। तपस्या का क्या अर्थ होता है? इसका अर्थ होता है: अपने को सताना, अपने को दबाना, अपने को मारना। यह आत्महिंसा है। ब्रह्मज्ञानी क्यों आत्महिंसा करेगा? जब ब्रह्मज्ञानी परहिंसा नहीं करता तो आत्महिंसा कैसे करेगा? जो दूसरे को भी नहीं मारता वह अपने को कैसे मारेगा? वह क्यों अपने को सताएगा? और एक बात खयाल रखना, जो आदमी अपने को सताने में कुशल हो जाता है। वह दूसरों को सताने में भी अनिवार्यरूपेण कुशल हो जाता है। जो अपने को सता रहा है, वह उनकी निंदा करेगा जो अपने को नहीं सता रहे हैं। वह उनको अपराध-भाव से भरेगा कि सताओ अपने को, बिना सताए कोई कभी पहुंचा है? मुझे देखो कितना सता रहा हूं! फिर भी अभी कितने दूर हूं! तुम तो बहुत दूर हो, तुमने तो अभी अपने को सताना सीखा ही नहीं। उसको वे तपश्चर्या कहते हैं। नंगे खड़े रहो सर्दी में।

    - ओशो 

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