भारत धार्मिक नहीं हो सका, क्योंकि भारत ने परलौक की धारणा विकसित की - ओशो
भारत धार्मिक नहीं हो सका, क्योंकि भारत ने परलौक की धारणा विकसित की - ओशो
पहला सूत्र: भारत धार्मिक नहीं हो सका, क्योंकि भारत ने धर्म की एक धारणा विकसित की जो पारलौकिक थी; जो मृत्यु के बाद के जीवन के संबंध में विचार करती थी, जो इस जीवन के संबंध में विचार नहीं करती थी। हमारे हाथ में यह जीवन है। मृत्यु के बाद का जीवन अभी हमारे हाथ में नहीं है। होगा, तो मरने के बाद होगा। भारत का धर्म जो है, वह मरने के बाद के लिए तो व्यवस्था करता है, लेकिन जीवन जो अभी हम जी रहे हैं पृथ्वी पर, उसके लिए हमने कोई सुव्यवस्थित व्यवस्था नहीं की। स्वाभाविक परिणाम हआ। परिणाम यह हुआ कि यह जीवन हमारा अधार्मिक होता चला गया। और उस जीवन की व्यवस्था के लिए जो कुछ हम कर सकते थे थोड़ा-बहुत, वह हम करते रहे। कभी दान करते रहे, कभी तीर्थयात्रा करते रहे, कभी गुरु की, शास्त्रों के चरणों की सेवा करते रहे। और फिर हमने यह विश्वास किया कि जिंदगी बीत जाने दो, जब बूढ़े हो जाएंगे, तब धर्म की चिंता कर लेंगे। अगर कोई जवान आदमी उत्सुक होता है धर्म में तो घर के बड़े-बूढे कहते हैं, अभी तुम्हारी उम्र नहीं है कि तुम धर्म की बातें करो। अभी तुम्हारी उम्र नहीं। अभी खेलने-खाने के, मजेमौज के दिन हैं। ये तो बूढों की बातें हैं। जब आदमी बूढा हो जाता है, तब धर्म की बातें करता है। मंदिरों में जाकर देखें, मस्जिदों में जाकर देखें, वहां वृद्ध लोग दिखाई पड़ेंगे। वहां जवान आदमी शायद ही कभी दिखाई पड़े। क्यों?
हमने यह धारणा बना ली कि धर्म का संबंध है उस लोक से, मृत्यु के बाद जो जीवन है उससे। तो जब हम मरने के करीब पहुंचेंगे तब विचार करेंगे। फिर जो बहुत होशियार थे उन्होंने कहा कि मरते क्षण में अगर एक दफे राम का नाम भी ले लो, भगवान का स्मरण कर लो, गीता सुन लो, गायत्री सुन लो, नमोकार मंत्र कान में डाल दो--आदमी पार हो जाता है। तो जीवन भर परेशान होने की जरूरत क्या है! मरते-मरते आदमी के कान में मंत्र फूंक देते हैं और निपटारा हो जाता है, आदमी धार्मिक हो जाता है। यहां तक बेईमान लोगों ने कहानियां गढ़ ली हैं कि एक आदमी मर रहा था, उसके लड़के का नाम नारायण था। मरते वक्त उसने अपने लड़के को बुलाया कि नारायण, तू कहां है? और भगवान धोखे में आ गए! वे समझे कि मुझे बुलाता है और उसको स्वर्ग भेज दिया। ऐसे बेईमान लोग, ऐसे धोखेबाज लोग, जिन्होंने ऐसी कहानियां गढ़ी होंगी, ऐसे शास्त्र रचे होंगे, उन्होंने इस मुल्क को अधार्मिक होने की सारी व्यवस्था कर दी। यह देश धार्मिक नहीं हो पाया पांच हजार वर्षों के प्रयत्न के बाद भी, क्योंकि हमने जीवन से धर्म का संबंध नहीं जोड़ा, मृत्यु से धर्म का संबंध जोड़ा। तो ठीक है, मरने के बाद--वह बात इतनी दूर है कि जो अभी जिंदा हैं, उन्हें उसका खयाल भी नहीं हो सकता।
बच्चों को कैसे उसका खयाल हो! अभी बच्चों को मृत्यु का कोई सवाल नहीं है। जवानों को मृत्यु का कोई सवाल नहीं है। सिर्फ वे लोग जो मृत्यु के करीब पहुंचने लगे और मृत्यु की छाया जिन पर पड़ने लगी, उन वृद्धजनों के लिए भर धर्म का विचार जरूरी था। और स्मरण रहे कि वृद्धों से जीवन नहीं बनता, जीवन बच्चों और जवानों से बनता है। जो जीवन से विदा होने लगे वे वृद्ध हैं। तो वृद्ध अगर धार्मिक भी हो जाएं तो जीवन धार्मिक नहीं होगा, क्योंकि वृद्ध धार्मिक होते-होते विदा के स्थान पर पहुंच जाएंगे, वे विदा हो जाएंगे। जिनसे जीवन बनना है, जो जीवन के घटक हैं, उन छोटे बच्चों और जवानों से धर्म का क्या संबंध है? उनके लिए धर्म ने कोई भी व्यवस्था नहीं दी कि वे कैसे धार्मिक हों। फिर जब पारलौकिक बात हो गई धर्म की, तो कम ही लोगों के लिए चिंता रही उसकी। क्योंकि परलोक इतना दूर है कि उसकी चिंता सामान्य मनुष्य के लिए करनी कठिन है। कुछ लोग, जो अति लोभी हैं, इतने लोभी हैं कि वे इस जीवन का भी इंतजाम करना चाहते हैं और मरने के बाद का भी इंतजाम करना चाहते हैं, जिनकी ग्रीड, जिनका लोभ इतना ज्यादा है, वे लोग भर धार्मिक होने का विचार करते हैं। जिनका लोभ थोड़ा कम है, वे फिक्र नहीं करते, कि मरने के बाद जो होगा वह देखा जाएगा।
- ओशो
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