हम अलग-अलग भाषाएं बोल रहे हैं - ओशो
हम अलग-अलग भाषाएं बोल रहे हैं - ओशो
एक गांव में गया हुआ था। एक मित्र आए और कहने लगे, लोकतंत्र के संबंध में आपका क्या खयाल है? डेमोक्रेसी के बाबत आप क्या सोचते हैं? मैंने कहा, जिसे तुम लोकतंत्र कहते हो अगर यही लोकतंत्र है, तो इससे तो बेहतर है कि मुल्क तानाशाही में चला जाए। उन्होंने जाकर गांव में खबर कर दी कि मैं तानाशाही को पसंद करता हूं। यह ऐसे ही हुआ कि जैसे कोई बीमार आदमी मेरे पास आए खांसता-खंखारता और मुझसे पूछे कि मैं क्या करूं, तो उससे मैं कहूं, इस तरह बीमार जिंदा रहने की बजाय तो बेहतर है कि तुम मर जाओ और वह आदमी गांव में खबर कर दे कि मेरा मानना यह है कि सब लोगों को मर जाना चाहिए। लौट कर उस गांव में पता चला कि मैं लोकतंत्र का दुश्मन हूं और तानाशाही के पक्ष में हूं। और यही नहीं, यह भी पता चला कि मैं खुद ही तानाशाह होना चाहता हूं।
तब सिवाय इसके मानने के क्या रास्ता रहा कि भाषाएं शायद हम दो तरह की बोल रहे हैं! मुझसे ज्यादा लोकतंत्र को प्रेम करने वाला आदमी खोजना थोड़ा मुश्किल है। मैं तो लोकतंत्र को इतना प्रेम करता हूं कि चाहता हूं कि दुनिया में कोई तंत्र ही न रह जाए; क्योंकि जब तक तंत्र है, तब तक लोकतंत्र नहीं हो सकता है। कोई भी तंत्र होगा ऊपर तो आदमी को गुलाम बनाएगा--कम या ज्यादा। लेकिन तंत्र होगा तो गुलाम बनाएगा। तंत्र होगा, शासन होगा, तो आदमी किसी न किसी तरह की गुलामी में रहेगा; कम और ज्यादा दूसरी बात है। जिस दिन तंत्र नहीं होगा उसी दिन जगत में ठीक लोकतंत्र होगा। जिस दिन शासन नहीं होगा उसी दिन दुनिया में ठीक शासन आया, ऐसा कहना चाहिए। लेकिन मुझे उस गांव में जाकर पता चला कि मैं खुद ही तानाशाह होना चाहता हूं; मैं तानाशाही को पसंद करता हूं। न केवल अखबारों में यह खबर निकली है, एक सज्जन ने पूरी किताब ही लिख दी है इस बात के ऊपर कि मैं तानाशाह होना चाहता हूं। तब सिवाय इसके कि हम अलग-अलग भाषाएं बोल रहे हैं और क्या कहा जा सकता है!
- ओशो
कोई टिप्पणी नहीं