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    मूर्छा में तुम जिसको भी पकड़ लोगे वही तुम्हारे लिए खूटा हो जाएगा - ओशो

     

    Whoever you catch in a stupor will be a stick for you - Osho

    मूर्छा में तुम जिसको भी पकड़ लोगे वही तुम्हारे लिए खूटा हो जाएगा - ओशो 

    मैंने सुना है, एक रात कुछ लोगों ने ज्यादा शराब पी ली। पूर्णिमा की रात थी, बड़ी सुंदर रात थी। चांदी बरसती थी। और वे मस्त नशे में झूम रहे थे। मस्ती में रात का सौंदर्य और भी हजार गुना हो गया था। एक पियक्कड़ ने कहा कि चलें आज, नौका-विहार को चलें। ऐसी प्यारी रात! ऐसा चांद न कभी देखा, न कभी सुना! यह रात सोने जैसी नहीं। यह रात तो आज नाव में विहार करने जैसी है। और भी दीवानों को जंचा। वे सभी गए नदी पर। मांझी अपनी नावें बांध कर घर जा चुके थे। उन्होंने सुंदर सी नाव चुनी, उस नाव में सवार हुए, पतवारें उठाईं, खेना शुरू किया। और रात देर तक नाव को खेते रहे, खेते रहे...। के करीब आ गई। ठंडी हवाएं चलीं। ठंडी हवाओं ने थोडा सा नशा कम किया। उन पियक्कडों में एक ने कहा, 'न मालूम कितनी दूर निकल आए होंगे! रात भर नाव खेई है। अब लौटने का समय हो। गया। कोई उतरे और जरा देख ले कि हम किस दिशा में चले आए हैं। क्योंकि हम तो नशे में थे। हमें पता नहीं हम कहां पहुंच गए हैं, किस दिशा में आ गए हैं। अब घर वापस लौटना है। इसलिए कोई उतरे किनारे पर, जरा देखे कि हम कहां हैं। अगर समझ में न आ सके तो पूछे किसी से कि हम उत्तर चले आए, कि पूरब चले आए, कि पश्चिम चले आए, कि हम अंततः कहां आ गए हैं। 

            एक आदमी उतरा और उतर कर खिलखिला कर हंसने लगा। यूं खिलखिलाने लगा कि बाकी लोग समझे कि पागल हो गए हो! उसकी खिलखिलाहट ने उनका नशा और भी उतार दिया। पूछे उससे कि बात क्या है हंसने की? वह कुछ कहे न। उसे हंसी ऐसी आ रही है कि अपने पेट को पकड़े। दसरा उतरा; वह भी हंसने लगा। तीसरा उतरा; वह भी हंसने लगा। वे सभी उतर आए और उस घाट पर भीड़ लग गई। क्योंकि वे सभी हंस रहे थे। भीड़ ने पूछा कि बात क्या है? बामुश्किल एक ने कहा, 'बात यह है कि रात हम नौका-विहार को निकले थे। बड़ी प्यारी रात थी। रात भर हमने पतवार चलाई। हम थक गए, हम पसीना-पसीना हो गए। और अब उतर कर हमने देखा कि हम नाव को किनारे से खोलना भूल ही गए थे। यह रात भर की यात्रा बिलकुल व्यर्थ गई; हम जहां हैं, यहीं थे, रात भर यहीं रहे। पतवारें जोर से चलाते थे तो नाव हिलती थी। हम सोचते थे यात्रा हो रही है।'

    ``ऐसे ही लोग बंधे हैं, होश में नहीं हैं, मूर्छा में हैं। और मूर्छा में तुम जिसको भी पकड़ लोगे वही तुम्हारे लिए खूटा हो जाएगा। उसके आस-पास ही तुम चक्कर काटते रहोगे। लोग मंदिरों में परिक्रमा कर रहे हैं--खूटों के चक्कर काट रहे हैं। लोग काबा जा रहे हैं, काशी जा रहे हैं, गंगा जा रहे हैं, कैलाश जा रहे हैं, गिरनार जा रहे हैं-- टों की पूजा चल रही है। किसी को इस बात की फिकर नहीं कि सदियां बीत गईं, नाव चलाते-चलाते थक गए, मगर पहुंचे कहां? पहुंचने की सुध-बुध ही नहीं है। घाट खतरनाक हो सकते हैं। मूर्छित के हाथ में कोई भी चीज खतरनाक हो जाती है। और फिर हर घाट वाला यह दावा करता है कि मेरा घाट पुराना है, कि मेरा घाट सोने से मढ़ा है, कि मेरा ही घाट सच है, और सब घाट झूठ हैं, जो मेरे घाट से उतरेगा वही पहुंचेगा।

    - ओशो 

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