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    मुझ पर आलोचना की जाती है कि मैं स्व-घोषित भगवान हूं - ओशो

     

    I am criticized for being a self-proclaimed god - Osho

    मुझ पर आलोचना की जाती है कि मैं स्व-घोषित भगवान हूं - ओशो 

    मगर जीसस को जब सूली लगी तो एक भी शिष्य वहां मौजूद नहीं था, सब भाग खड़े हुए। एक शिष्य ने पीछा करने की कोशिश की थी रात में, तो जीसस ने कहा था कि देख, मत पीछे आ। मैं तुझे जानता हूं। सुबह मुर्गा बोले, इसके पहले तीन बार तू मुझे इनकार करेगा। लेकिन उसने कहा, 'कभी नहीं, कभी नहीं! मैं और इनकार करूं? मेरा समर्पण पूरा है!' वह चल पड़ा। दुश्मन जीसस को पकड़ कर चले, जंजीरें बांध कर चले। रात थी अंधेरी, मशालें लेकर चले।

    और वह भी उस भीड़ में सम्मिलित हो लिया। लेकिन भीड़ को शक हुआ--यह आदमी कुछ अपरिचित मालूम पड़ता है। यह अपने वाला नहीं। और कुछ संदिग्ध दिखता है, कुछ डरा-डरा भी, कुछ भयभीत भी, कुछ आह्लादित भी नहीं मालूम होता कि जीसस पकड़ लिए गए हैं, सब प्रसन्न हो रहे हैं कि अब खात्मा हो गया इस आदमी का, यह उपद्रव मचा रहा था। सिर्फ यह आदमी उदास दिखता है। पकड़ लिया कि तुम कौन हो? क्या तुम जीसस के शिष्य हो? उसने कहा कि नहीं, मैं तो एक परदेसी हं। जेरुसलम की तरफ जा रहा था। रात अंधेरी है, तुम्हारे पास मशालें हैं, इसलिए साथ हो लिया। और तुम भी जेरुसलम जा रहे हो, सोचा कि ठीक है, रास्ते में किस-किस से पूछंगा! अंधेरी रात है, कोई मिले न मिले। जीसस पीछे लौटे और उन्होंने कहा, 'देख, अभी मुर्गे ने बांग भी नहीं दी!' और यह घटना तीन बार घटी; मुर्गे के बांग देने के पहले तीन बार घटी। इनसे वोट मिल सकता था? और ये दस-बारह लोग थे कुल, उनमें से ही एक ने तीस रुपये में जीसस को बेचा था--जुदास ने। 

            कितने लोग उन्हें वोट देने जाते? कौन हिम्मत करता वोट देने की, जो मुर्गे के बांग देने के पहले इनकार कर दिए थे! और जीसस के पास कौन सा सर्टिफिकेट था परमात्मा का कि वे ही ईश्वर के इकलौते बेटे हैं? मुझ पर आलोचना की जाती है कि मैं स्व-घोषित भगवान हूं। मैं तुमसे कहता हूं, इसके सिवाय तो कोई उपाय ही नहीं। कभी नहीं रहा। आखिर आंख वाला ही घोषणा कर सकता है कि मुझे प्रकाश दिखाई पड़ रहा है। अंधों से वोट लेनी पड़ेगी? कि अंधों का सर्टिफिकेट चाहिए पड़ेगा? मैं जब विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण हुआ तो मैं प्रथम कोटि में विश्वविद्यालय में प्रथम आया था। स्वभावतः मुझे निमंत्रण मिला शिक्षा-मंत्रालय से कि अगर मैं चाहं तो मेरे लिए पहला अवसर है प्रोफेसर हो जाने का। मैं गया मैंने कहा, 'यह रहा सर्टिफिकेट जो जाहिर करता है कि मैं प्रथम श्रेणी में प्रथम आया है। और क्या चाहिए? उन्होंने कहा, 'चरित्र का प्रमाण-पत्र चाहिए।' मैंने कहा, 'यह जरा मुश्किल है।' उन्होंने कहा, 'क्यों इसमें क्या मुश्किल है? क्या आप अपने विश्वविद्यालय के उपकुलपति का चरित्र का प्रमाणपत्र नहीं ला सकते?'

            मैंने कहा, 'ला सकता हूं, लाने में कोई अड़चन नहीं। आ रहा था तो उन्होंने मुझसे कहा था, लेकिन मैंने इनकार किया। क्योंकि मैं उनको चरित्र का सर्टिफिकेट नहीं दे सकता तो उनसे मैं कैसे चरित्र का सर्टिफिकेट लूं? शराबी-कबाबी, वेश्यागामी--कौन से गुण हैं जो उनमें नहीं हैं! उनसे मैं क्या चरित्र का सर्टिफिकेट लूं? मैंने उनसे पूछा, आप सोचते हैं आपसे मैं चरित्र का सर्टिफिकेट ले सकता हूं? पहले आप यह तो पूछो कि मैं आपको चरित्र का सर्टिफिकेट दे सकता हूं? सो बात वहीं बिगड़ गई।'  कहा, 'फिर जरा मुश्किल आएगी। फिर क्या किया जाए?' मैंने कहा, 'मैं ही चरित्र का सर्टिफिकेट लिख सकता हूं अपने बाबत।' उन्होंने कहा, 'ऐसा नियम नहीं।' तो मैंने कहा, 'आप जिसके दस्तखत कहें उसके दस्तखत कर सकता हूं।' उन्होंने कहा, 'यह कैसे होगा? ' मैंने कहा, 'यह आप कार्बन-कापी समझें। और जिसके दस्तखत मैं करता हूं उससे दस्तखत मैं ले लूंगा, मूल कापी मेरे पास रहेगी। आप मूल कापी चाहेंगे तो मूल कापी आपको लाकर दे दूंगा।' तो मेरे प्रोफेसर थे डाक्टर एस.के.सक्सेना, उनके नाम से मैंने सर्टिफिकेट लिख दिया। शिक्षा-मंत्री थोड़े हिचकेबिचके, मगर मेरा रंग-ढंग देख कर उनको समझ में आ गया कि इस आदमी से झंझट लेना ठीक भी नहीं। सो उन्होंने सर्टिफिकेट रख लिया, मुझे नौकरी भी मिल गई। मैंने डाक्टर एस.के.सक्सेना से जाकर कहा कि यह मेरा सर्टिफिकेट है, आपके दस्तखत मैंने किए हैं, आप इसकी मूल प्रति बना दें। उन्होंने कहा, 'जिंदगी हो गई मेरी सर्टिफिकेट लिखते, मूल प्रति पहले बनाई जाती है, फिर उसकी सर्टिफाइड कापी होती है।' मैंने कहा, 'मेरे साथ कोई नियम काम नहीं करता। आपको एतराज अगर हो जो मैंने अपने बाबत लिखा है इसमें, तो आप मत मूल प्रति दें। आप सर्टिफिकेट पढ़ लें।'

            सर्टिफिकेट में मैंने जो लिखा था वह शिक्षा-मंत्री ने भी पढ़ा नहीं था, सिर्फ रख लिया था। जब डाक्टर एस.के.सक्सेना ने उसको पढ़ा, कहने लगे कि यह तुमने क्या लिखा है कि मैं परम अज्ञानी हूं, कि मेरे चरित्र का कोई ठिकाना नहीं, कि मैं आज कुछ हूं कल कुछ हूं, मैं भरोसे का आदमी नहीं! यह चरित्र का सर्टिफिकेट है?

    मैंने कहा, 'अंधों को देना है, अंधों से लेना है। आंख वाला और करे क्या? तुम सिर्फ दस्तखत करो। न शिक्षा-मंत्री ने पढ़ा, न तुम पढ़ो।' उन्होंने जल्दी से दस्तखत किए। उन्होंने कहा कि तुम मुझसे कहते, मैं सुंदर सर्टिफिकेट लिखता। मैंने कहा, 'तुमसे मैं सर्टिफिकेट ले सकता नहीं था। वही अड़चन। तुम भी जानते हो कि मैं तुमसे सर्टिफिकेट नहीं ले सकता।'

    - ओशो 

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