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    शास्त्र मनुष्य की छाती पर बोझ हो गए हैं - ओशो

     

    Scriptures have become a burden on man's chest - Osho


    शास्त्र मनुष्य की छाती पर बोझ हो गए हैं - ओशो 

    नदी को पार करना हो तो अलग-अलग घाटों से नदी पार की जा सकती है। अलग-अलग नावों में बैठा जा सकता है। अलग-अलग मांझी हो सकते हैं। अलग होंगी पतवारें। लेकिन उस पार पहुंच कर सब अलगपन मिट जाएगा। फिर कौन पूछता है-- ' किस नाव से आए? कौन था मांझी? नाव का बनाने वाला कारीगर कौन था? नाव इस लकड़ी की बनी थी या उस लकड़ी की बनी थी?' उस पार पहुंचे कि इस पार का सब भूला। ये घाट, ये नदी, ये पतवार, ये मांझी, ये सब उस पार उतरते ही विस्मृत हो जाते हैं। और उस पार ही चलना है। लेकिन लोग हैं पागल। वे नावों से बंध जाते हैं, घाटों से बंध जाते हैं। और जो घाट से बंध गया वह पार तो कैसे होगा? जिसने घाट से ही मोह बना लिया, जिसने घाट के साथ आसक्ति बना ली, जिसने घाट के साथ अपने नेह को लगा लिया, उसने खूटा गड़ा लिया। अब यह छोड़ेगा नहीं। यह छोड़ नहीं सकता। इससे छुड़ाओगे भी तो यह नाराज होगा कि मेरा घाट मुझसे छुड़ाते हो, मेरा धर्म मुझसे छुड़ाते हो, मेरा शास्त्र मुझसे छुड़ाते हो! जिसे यह शास्त्र समझ रहा है, वही इसकी मौत बन गई। और जिसे यह घाट समझ रहा है, वह अगर पार न ले जाए तो घाट न हुआ, कब्र हो गई। यूं ही मंदिर कब्र बन गए हैं। यूं ही मस्जिदें मजार हो गई हैं। यूं ही शास्त्र मनुष्य की छाती पर बोझ हो गए हैं।

            प्यारे-प्यारे शब्द मनुष्य के हाथ में जंजीरें बन गए हैं, पैरों में बेड़ियां बन गए हैं। यह मनुष्य का । कारागृह बड़ी सुंदर ईंटों से बना है, बड़ी प्यारी ईंटों से बना है। इसे छोड़ने का मन नहीं होता। और इसीलिए हर आदमी कारागृह में है। फिर कारागृह अलग-अलग हो सकते हैं। फिर चर्च हो, कि गुरुद्वारा हो, कि मंदिर हो, कि शिवालय हो, क्या फर्क पड़ता है? तुम कहां बंधे हो, इससे भेद नहीं।

    - ओशो 

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