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    सत्य के आकाश में कोई चरण-चिह्न नहीं बनते - ओशो

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    सत्य के आकाश में कोई चरण-चिह्न नहीं बनते - ओशो 

     ईसाई सोचते हैं: जो जीसस की नाव में नहीं बैठेगा वह नहीं पहुंचेगा। मगर उनको यह भी खयाल नहीं आता कि जीसस खुद कैसे पहुंचे? तब तक तो जीसस की नाव नहीं थी। यह तो सीधी-साफ बात है। जीसस तो ईसाई नहीं थे। उन्होंने 'ईसाई' शब्द भी नहीं सुना था। कभी सपने में भी यह शब्द और इसकी अनुगूंज उन्हें न आई होगी। जब जीसस पहुंच सके बिना ईसाई हुए तो दूसरे क्यों न पहुंच सकेंगे? बौद्ध सोचते हैं: बस उनका ही रास्ता एकमात्र रास्ता है। लेकिन बुद्ध को तो इस रास्ते का कोई भी पता न था। बुद्ध तो टटोलते-टटोलते, खोजते-खोजते, अंधेरे में किसी तरह इस द्वार को पाए थे। इस द्वार का नाम बौद्ध द्वार है, इसकी उन्हें कभी कल्पना भी नहीं थी। वे खुद भी बिना बौद्ध हुए पहुंचे थे। 

            और यही सत्य सबके संबंध में है। जो भी पहुंचा है, किसी और के रास्ते पर चल कर नहीं पहुंचा है। उसे अपने ही घाट से पहुंचना है। प्रत्येक को अपने ही घाट से पहुंचना है। प्रत्येक को अपनी ही नाव बनानी है। स्वयं की चेतना की ही नाव गढ़नी है। चलना है और चल कर ही अपना रास्ता बनाना है। बनेबनाए रास्ते नहीं हैं। काश, बने-बनाए रास्ते होते! सीमेंट और कोलतार के बने हुए राजपथ होते! तो सत्य तक पहंचाने वाली बसें चलतीं, रेलगाडियां होतीं, पटरियों पर लोग दौडते। फिर कोई अडचन न होती। अडचन यही है कि कोई बना हुआ रास्ता नहीं है। बुद्ध के वचन स्मरणीय हैं। बुद्ध ने कहा है: जैसे पक्षी आकाश में उड़ते हैं तो उनके कोई पग-चिह्न नहीं छूट जाते। पक्षी उड़ता जरूर है, लेकिन कोई रास्ता नहीं बनता, आकाश खाली का खाली रहता है, कि कोई दूसरा पक्षी ठीक उसी पक्षी के पग-चिह्नों पर चल कर आकाश में नहीं उड़ सकता। पग-चिह्न ही नहीं बनते। यूं ही सत्य का आकाश भी है। वहां कोई चरण-चिह्न नहीं बनते।

    - ओशो 

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