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    'जिसमें वृद्ध नहीं हैं वह सभा नहीं है' - ओशो

    'That which is not old is not a meeting' - Osho

     'जिसमें वृद्ध नहीं हैं वह सभा नहीं है' - ओशो 

     इसलिए यह सूत्र कहता है: 'जिसमें वृद्ध नहीं हैं वह सभा नहीं है।' इसका अगर मोटा-मोटा अर्थ लो, तब तो यह सूत्र बिलकुल गलत है। लेकिन इसका गहरा अर्थ भी लिया जा सकता है। मैं आश्वासन नहीं दे सकता कि वही गहरा अर्थ महाभारत का भी रहा होगा, क्योंकि सूत्र का बाकी हिस्सा भी बहुत उथली बातों से भरा है। लेकिन इन उथली बातों का संकेत इस भांति उपयोग किया जा सकता है कि तुम्हारे लिए मार्गदर्शक हो सके। इसलिए मुझे चिंता नहीं है कि महाभारत का क्या अर्थ है। मुझे इसकी चिंता है कौन सा अर्थ तुम्हारे लिए सार्थक होगा। मुझे तुम्हारी फिकर है, महाभारत से मुझे क्या लेना-देना? इसलिए वृद्ध का मैं अर्थ करता हूं परिपक्व, बूढा नहीं। जीवन के अनुभव ने जिसे प्रौढ़ता दी है, उम्र उसकी कुछ भी क्यों न हो। शंकराचार्य तैंतीस वर्ष की उम्र में मरे, वृद्ध तो नहीं थे; लेकिन फिर भी एक प्रौढ़ता है जो बूढों में भी नहीं होगी। जीसस की मृत्यु भी तैंतीस वर्ष में हुई, मारे गए, तब तक बूढे तो न थे। इस अर्थ में तो जीसस, शंकराचार्य जैसे लोग सभा में बैठने योग्य भी नहीं थे। 

            'सभा' शब्द से ही 'सभ्य' बना है। सभ्य का अर्थ है, जो सभा में बैठने योग्य हो; जिसे सलीका आता हो; जिसे इतना अदब आता हो कि बैठ सके, सन सके, समझ सके। और इसी सभा शब्द से सभ्यता शब्द बना है। जो सभा में बैठने योग्य है वह सभ्य। और सभ्य लोगों का जो समूह है, उसके जीवन की जो शैली, जो व्यवस्था, जो आचरण, जो अनुशासन है-- वह सभ्यता। निश्चित ही इसका संबंध उम्र से नहीं हो सकता, क्योंकि बूढे से बूढे शैतान पाए जाते हैं और कभी-कभी युवा से युवा संत भी। सच तो यह है जो युवा होते हुए संत न हो सका, क्या खाक बूढा होकर संत हो सकेगा! जब ऊर्जा थी, जब जीवन को समझने की, जीवन की चनौती को अंगीकार करने की सामर्थ्य थी, जब अज्ञात की यात्रा पर निकलने की क्षमता थी, छाती थी, तब जो न गया उस अभियान पर, तब जिसने जीवन के शिखर छूने के लिए अपने पंख न फैलाए, जब उड़ सकता था, जब प्राणों में सितारों को छूने के सपने थे, तब जो दुबका बैठा रहा अपने घोंसले में, वह तुम सोचते हो बूढा होकर, जीर्ण-जर्जर होकर, खंडहर होकर, सब तरह टूट कर, फूट कर, अब अनंत की यात्रा पर निकलेगा? जीवन भर जिस घोंसले को पकड़ कर बैठा है, अब इस अंतिम क्षण में तुम सोचते हो, अपनी व्यवस्था, अपनी सुरक्षा, अपना सब कुछ छोड़ कर, त्याग कर, उस दूर के किनारे का जिसका कोई भरोसा नहीं, हो या न भी हो, उस दूर के किनारे की खोज उसकी अभीप्सा बनेगी? यह असंभव है। इसलिए मेरा अर्थ समझने की कोशिश करो। वृद्ध से मेरा अर्थ उम्र से नहीं। वृद्ध से मेरा अर्थ है: जीवन की अग्नि में जो तपा है, निखरा है, उम्र कोई भी हो। कभी-कभी छोटे-छोटे बच्चों ने भी सत्य को पा लिया है, आसानी से पा लिया है, क्योंकि उनके चित्त का कागज कोरा था, उनके चित्त के दर्पण पर अभी धूल न जमी थी।

            'वृद्ध' का अर्थ उम्र से तो मैं नहीं ले सकूँगा। जहां तक महाभारत का संबंध है, 'वृद्ध' से अर्थ उम्र का ही रहा होगा। क्योंकि भारत की यह पुरानी धारणा रही है कि पच्चीस वर्ष तो विद्या-अध्ययन, बचपन; फिर पच्चीस वर्ष गृहस्थ आश्रम, वह दूसरी सीढ़ी, अनुभव; फिर पच्चीस वर्ष वानप्रस्थ आश्रम, जंगल जाने की तैयारी; और फिर चौथा चरण पचहत्तर वर्ष के बाद--संन्यास। वृद्ध को ही संन्यास लेने का अधिकार था, क्योंकि वृद्ध से ही आशा थी कि वह परंपरा को बचाएगा। 

            बूढे की हिम्मत ही नहीं होती क्रांति की, बगावत की। उसके भीतर की आग कभी की बुझ चुकी है। उसके भीतर अब खोजने से चिनगारी भी न मिलेगी, राख ही राख का ढेर है अब। इस बूढे पर भरोसा किया जा सकता है। न्यस्त स्वार्थ इस पर भरोसा कर सकते हैं। यह अब वही दोहराएगा जो परंपरा कहती है, जो शास्त्र कहते हैं। यह इंच भर यहां-वहां नहीं हटेगा; यह लकीर का फकीर होगा। अब इस बुढापे में यह इतनी हिम्मत नहीं करेगा कि झंझट मोल ले, बंधे हए स्थापित मूल्यों से टक्कर ले। अब इस आखिरी उम्र में, जब कि पत्ता पीला पड़ गया है, तूफानों से उलझने की हिम्मत पत्ते की नहीं हो सकती। तूफान तो दूर, हवा का छोटा सा झोंका भी इस पत्ते को ले गिरेगा। अब तो यह पत्ता जोर से पकड़ेगा उस वृक्ष को, जितनी देर पकड़े रह सके। अब तो इसकी पकड़ बहुत मजबूत हो जाएगी। अब तो मरने का डर ही पर्याप्त होगा इसे। नर्क-स्वर्ग, सारी धारणाओं को यह स्वीकार कर लेगा। ईश्वर पर अब संदेह न कर सकेगा। 

            संदेह करने के लिए थोड़ा युवापन चाहिए। स्वर्ग और नर्क पर प्रश्न-चिह्न लगाने के लिए मौत से जरा फासला चाहिए। पीला पत्ता यूं कंप रहा है, अभी गिरा, अभी गिरा। यह क्या इनकार कर सकेगा? यह क्या संघर्ष ले सकेगा? संघर्ष का बल कहां से जुटाएगा? थोड़ा-मोड़ा जो भी इसके पास बल बचा है, वह एक ही काम में लगाएगा कि वृक्ष को जितनी देर पकड़ सके। इसलिए सारे समाजों ने--और यह समाज पुराना समाज है, पुराने से पुराना--इस बात की कोशिश की है कि वृद्ध को ही शिक्षा देने का अधिकार हो, क्योंकि वृद्ध वही कहेगा जो सदियों ने कहा है। वह कभी परंपरा के विपरीत न जाएगा। उस पर आश्वासन रखा जा सकता है। वह दकियानस होगा। वह मर है मरा है। वह सिर्फ वही दोहराएगा तोते ही तरह, जो उसने सुन रखा है। न्यस्त स्वार्थ वृद्धों का सहारा लेते हैं। इसलिए सभी न्यस्त स्वार्थ 'बूढे को समादर दो' इसका आग्रह करते हैं। बच्चे का अपमान है, जवान की निंदा है, बूढे का समादर है। यूं अगर गौर से देखो तो तुमने जीवन का इनकार कर दिया और मृत्यु का समादर किया। बूढा मृत्यु के करीब है, जीवन से रोज दूर हटता गया है। जीवन तो पीछे छूट गया, रास्ते की उड़ती हुई धूल है। आगे तो मौत का अंधेरा है।

    - ओशो 

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