मैं अमृत हूं - ओशो
मैं अमृत हूं - ओशो
अगर कोई आदमी इस भरोसे में निश्चिंत मर जाता है कि आत्मा अमर है, तो हो भी सकता है यह केवल भरोसा रहा हो, ज्ञान न रहा हो; यह बोध न रहा हो, यह केवल मान्यता रही हो। और मान्यता एक तरह का सम्मोहन पैदा कर देती है। और यह भी हो सकता है कि कोई नास्तिक इस भरोसे में मर जाता हो कि सब समाप्त ही हो रहा है, इसलिए चिंता क्या! मगर वह मान्यता भी मान्यता है। सुकरात की प्रौढ़ता बहुत अदभुत है: कोई मान्यता नहीं है। मान्यता होती ही बुद्धओं की है। बुद्धिमान की कोई मान्यता नहीं होती। बुद्धिमान तो प्रतिक्षण जीवन को उसकी चुनौती के साथ स्वीकार करता है। यह चुनौती सामने खड़ी है, दो विकल्प हैं। मौत अभी जानी नहीं। इसलिए सुकरात कहता है: 'जिसको मैंने जाना नहीं, उसके संबंध में तुमसे क्या कहूं? बचूंगा या नहीं बचूंगा, यह तो मर कर ही जानूंगा, उसके पहले नहीं कह सकता हूं। हां, मरते-मरते जो भी बन सकेगा, कह जाऊंगा।' और मरते-मरते भी सकरात कहता गया।
जहर घोंटने वाला देर कर रहा है। वह भी सकरात का प्रेमी है। मजबूरी है। उसका काम है जहर घोंट कर पिलाना, जिनको सजा मिली हो मृत्यु की। यह एथेंस में जहर पिलाकर ही मारने की व्यवस्था थी। मगर वह देर कर रहा है जहर को घोंटने में। सुकरात ने कहा कि देर हुई जाती है। सुकरात उठ कर बैठा, द्वार पर आया और उसने कहा: 'बड़ी देर कर रहे हो! हमेशा काम में कुशल होना चाहिए। और जो भी काम करो, उसमें एक व्यवस्था, एक सलीका होना चाहिए।' खुद के लिए जहर घोंटा जा रहा है। यह बूढा आदमी इस तरह की बात नहीं कह सकता था। यह तो कहता-- 'और थोड़ी देर करो, ऐसी भी जल्दी क्या है? जितनी देर रह जाऊं अटका इस वृक्ष से। पीला पत्ता हूं, कब गिरा क्या भरोसा। जितनी देर अटका रह जाऊं। जितनी देर और जी लूं, दो सांस और ले लूं! एक बार और भर नजर देख लूं इस सुंदर लोक को! धन्यवाद तुम्हारा!' नहीं, लेकिन यह नाराज होता है। यह कहता है, 'छह बज गए, सूरज ढल गया और तेरे काम में इतनी देर हो रही है। यह उचित नहीं, यह तर्कसंगत नहीं।'
उस आदमी की आंखों में आंसू हैं। वह बोला, 'आप भी पागल हो। मैं इसलिए देर कर रहा हूं कि जितनी देर हो सके, सुकरात जैसा आदमी और जी ले।' सुकरात ने कहा, 'जीना तो देख चुका, अब मौत को देखना है। जीना तो खूब देख लिया। जीना तो भरपूर देख लिया। जीवन तो जी लिया, पी लिया, समझ लिया। जीवन जो दे सकता था, ले लिया। अब तू अटका मत। अब यह मौत का निमंत्रण द्वार पर खड़ा है। अब यह मौत की नाव आ लगी किनारे पर। अब मुझे सवार होने दे और जाने दे। अब मुझे देखने दे कि मौत क्या है।' जहर पीया, सुकरात लेट गया।
उसके शिष्य उसके डर के कारण रो भी नहीं सकते, शोरगुल भी नहीं मचा सकते। उनकी छाती फटी जा रही है। स्वभावतः, उनकी आंखें गीली हैं। और जैसे रात का अंधेरा उतरने लगा, उनके आंस भी ढलने लगे, क्योंकि अब सकरात देख न सकेगा। और सकरात क्या कह रहा है? सुकरात कह रहा है: 'सुनो, गौर से सुनो! मेरे पैर शून्य हुए जा रहे हैं, लेकिन मैं अपने भीतर स्वयं को उतना का उतना पाता हूं, जरा भी अंतर नहीं। यूं मेरे घुटने तक सन्नाटा आ गया है। अब मैं अपने घुटने को छूता हूं तो मुझे कोई स्पर्श का बोध नहीं होता, अर्थात घुटने तक सुकरात मर चुका है। लेकिन मेरे भीतर अभी मैं अखंड हूं, मेरी चेतना में कुछ भी नहीं मरा।' और तब जंघाओं तक सुकरात खबर देता है: 'मैं मर चुका।' और तब कहता है: 'मेरे हाथ भी ठंडे पड़े जा रहे हैं। अब मैं अपने हाथों को भी अनुभव नहीं कर रहा हूं। मगर याद रखना, मेरी चेतना अभी वैसी की वैसी अखंड है, अछूती है। वहां कुछ भी परिणाम नहीं हुआ। जहर वहां नहीं पहुंचा है। शायद जहर वहां नहीं पहुंचेगा।'
और तब वह कहता है: 'मेरे हृदय की धड़कनें भी अब ठंडी पड़ने लगीं। आहिस्ता-आहिस्ता मेरा हृदय डूबा जा रहा है। मगर मैं तुमसे कहता हूं कि मैं नहीं डूबा हूं, मैं वैसा ही सतेज हूं। सच पूछो तो मेरा तेज और प्रखर है। मैं मर नहीं रहा हं; जैसे एक नया जीवन! जैसे सांप केंचुली बदल रहा है। एक कारागृह से मुक्त हो रहा है।'
और तब वह कहता है: 'अब मेरा मस्तिष्क भी शून्य होने लगा। शायद यह मेरा आखिरी वक्तव्य होगा, क्योंकि मेरी जीभ पर भी असर आ रहा है और जीभ लड़खड़ाने लगी है। अंतिम बात तुमसे कह जाऊं कि मस्तिष्क शून्य हआ जा रहा है, जीभ लड़खड़ा रही है, लेकिन मैं थिर हं। भीतर कछ भी नहीं लडखडाया है। भीतर सब मौन है, सब सन्नाटा है। ऐसा, जैसा कभी न था। मैं आनंदित हूं। मैं मर नहीं रहा हूं। मैं मर नहीं सकता हूं।
सब मर गया है और इसलिए इस देह के बीच में मैं पहली बार इस पृष्ठभूमि में अपनी अमरता का अनुभव कर रहा हूं। मैं अमृत हूं।'
- ओशो
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