मृत्यु तो उसी की सुंदर हो सकती है जिसका जीवन परम सुंदर रहा हो - ओशो
मृत्यु तो उसी की सुंदर हो सकती है जिसका जीवन परम सुंदर रहा हो - ओशो
एक ही धर्म है दुनिया में--जैन धर्म--जो अपने मुनियों को मरने की सुविधा देता है; जो इस बात की आज्ञा देता है कि जब मुनि ऐसा अनुभव करे कि अब जीने में कोई सार नहीं, वह अन्न-जल त्याग दे, आमरण अनशन पर बैठ जाए और यूं रोज अपने को गलाता-गलाता मर जाए। यह आत्महत्या है और विचारणीय है। यह जैन धर्म की पूरी जीवन-दृष्टि की पराकाष्ठा है। जैन धर्म संभवतः सबसे ज्यादा जीवन-विरोधी धर्म है। तभी तो उसकी यह अंतिम निष्पत्ति है कि वह आत्महत्या को भी अंगीकार करता है। न केवल अंगीकार करता है, बल्कि उसको महान सम्मान देता है। अभी-अभी कर्नाटक में बाहुबली की विशाल प्रतिमा पर लाखों रुपये खर्च करके दूध से प्रतिमा को स्नान कराया गया। संभवतः पृथ्वी पर सबसे बड़ी प्रतिमा है बाहुबली की। अपूर्व है कला की दृष्टि से। मगर यह जान कर तुम चकित होओगे कि यह प्रतिमा बाहुबली की बनी क्यों! यह बनी संलेखना के कारण। 'संलेखना' जैनियों का शब्द है आत्महत्या के लिए। बाहुबली ने 'संलेखना' करके, आमरण उपवास करके अपना शरीर त्याग कर दिया। इसलिए यह विशाल प्रतिमा खड़ी की गई सम्मान में। यह सम्मान इतना बड़ा दिया गया कि न तो महावीर की ऐसी कोई प्रतिमा है, न नेमिनाथ की कोई ऐसी प्रतिमा है, न ऋषभदेव की, जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर की कोई ऐसी प्रतिमा है।
और यह भी जान कर तुम हैरान होओगे कि जैन मानते हैं केवल चौबीस तीर्थंकर हुए, इसलिए उन चौबीस को छोड़ कर किसी और को भगवान नहीं कहते हैं। लेकिन वे सभी सहज मरे, संलेखना से नहीं मरे। मौत जब आई तब आई। बाहुबली अपने हाथ से मरे। इसलिए शास्त्रीय नहीं है बाहुबली को भगवान कहना, क्योंकि वे कोई तीर्थंकर नहीं हैं, न ही किसी शास्त्रों में उनके भगवान होने का उल्लेख है। लेकिन शोरगुल मचा कर, दंभी पीट कर उनको भगवान बाहुबली कहना शुरू कर दिया गया। उनको भगवान कहने का कुल कारण इतना था कि उन्होंने अपने हाथ से जीवन का त्याग किया। लेकिन यह जरा सोचने जैसा है। जो व्यक्ति जीवन से ऊब गया है, वही तो जीवन का त्याग करेगा। और ऊब कोई बड़ी ऊंची अवस्था नहीं। ऊब कोई आनंद नहीं। ऊब कोई जीवन का अनुभव नहीं। ऊब कोई जीवन का सौंदर्य नहीं। ऊब कोई जीवन के सहस्रदल का खिलना नहीं। ऊब तो सिर्फ इतना बताती है कि तुम गलत ढंग से जीए। तुम जीए नहीं, तुम जीवन से अपरिचित रह गए। और तुम इतने ऊब गए हो जीवन से कि अब तुम्हारी आशा मौत पर अटकी है, कि जीवन में तो कुछ नहीं पाया, शायद मौत में कुछ मिल जाए। आशा नहीं मरी, वासना नहीं मरी। चूंकि तुम जीवन ठीक से न जीए, सम्यक रूप से न जीए, इसलिए जीवन खाली का खाली गया, हाथ भरे नहीं जीवन की संपदा से, तो अब आशा कर रहे हो मृत्यु से। वही वासना, जो जीवन में अधूरी रह गई उसे मृत्यु में पूरा करना चाहते हो? जिसे जीवन में पूरा न कर सके उसे मृत्यु में क्या खाक पूरा करोगे! जीवन लंबा है, मृत्यु तो एक क्षण में घट जाएगी। जो इतने लंबे समय में भी न कर सके, वह एक क्षण में कैसे कर पाओगे?
मृत्यु तो उसी की सुंदर हो सकती है जिसका जीवन परम सुंदर रहा हो। मृत्यु तो जीवन की पराकाष्ठा है। वह तो अंतिम स्वर है बांसुरी का। लेकिन जिसने जीवन भर बांसुरी को साधा हो, जिसके स्वर सधे हों, बंधे हों सुरत्ताल-लय में, जिसका छंद जगा हो, वही मौत को गाते हुए, नृत्य लेते हुए अंगीकार कर सकेगा। उसे मरने के लिए आयोजन करने की जरूरत नहीं। आयोजन तो वासना है। मौत आएगी तो अंगीकार--आनंद से, अहोभाव से, जैसा जीवन अंगीकार। उसके भीतर यह दुविधा नहीं, यह द्वैत नहीं।
- ओशो
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