सत्य किसी पुस्तक पर नहीं लिखा जा सकता - ओशो
सत्य किसी पुस्तक पर नहीं लिखा जा सकता - ओशो
सिर्फ सूफियों के पास एक किताब है, जिसमें कुछ भी नहीं लिखा है; वह कोरी है। कोई एक हजार साल पुरानी किताब है। और जब पहली दफा वह किताब पाई गई, तो कथा है कि जिस सूफी फकीर के पास वह किताब पाई गई वह जीवन भर उसे छिपाए रहा। वह किसी को भी, अपने प्यारे से प्यारे शिष्य को भी, उस किताब को देखने नहीं देता था। उसने उस किताब को ठीक से पोटली में बांध कर, अपने साथ ही रखता था। नहाने भी जाता था तो किताब अपने साथ ही ले जाता था। रात सोता था तो तकिए के नीचे रख कर सोता था। क्योंकि सब शिष्यों की नजर उस किताब पर थी--उस किताब में राज क्या है! बड़ी आकांक्षा थी कि एक दफा देख लें। सब द्वार-दरवाजे बंद करके उस किताब को पढ़ता था। शिष्यों को शक-शुबहा होता था, झांकते भी थे। आखिर शिष्य ही थे! कुतूहल, जिज्ञासा...। छप्पर पर चढ़ जाते, संधों में से देखते कि पढ़ रहा है। है कोई राज की बात! कभी किसी के सामने न खोलता। जब मरा यह फकीर तो उसकी अंत्येष्टि करने की फिकर तो शिष्यों ने बाद में की, सबसे पहले तकिए के नीचे से किताब निकाली। जैसे इसी की प्रतीक्षा कर रहे थे कि कब तम विदा होओ और हम देखें। और जो पाया तो भौचक्क रह गए। किताब खाली थी। किताब में सिर्फ कोरे कागज थे, कुछ लिखा ही न था। तब से एक हजार साल बीत गए। गुरुओं से शिष्यों को वह किताब दी जाती रही है। कुछ भी नहीं लिखा है। एक शब्द नहीं लिखा है। शुरू से लेकर अंत तक बिलकुल खाली है। दीवाल ही है।
- ओशो
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