तुम्हारे भीतर जो छिपा है वह विक्षिप्त है - ओशो
तुम्हारे भीतर जो छिपा है वह विक्षिप्त है - ओशो
खलील जिब्रान ने एक छोटी सी घटना लिखी है। उसका एक मित्र पागल हो गया। तो वह उसको मिलने पागलखाने गया। मित्र बगीचे में पागलखाने के बैठा हुआ था, बड़ा प्रसन्न था। खलील जिब्रान सहानुभूति प्रकट करने गया था। वह इतना प्रसन्न था कि सहानुभूति प्रकट करने का मौका ही न मिले। प्रसन्न आदमी से क्या सहानुभूति प्रकट करो! वह तो यूं मस्त हो रहा था, वृक्षों के साथ डोल रहा था, पक्षियों के साथ गुनगुना रहा था। पागल ही जो था। फिर भी खलील जिब्रान तो अपनी तय करके आया था, तो बिना कहे जा नहीं सकता था। कहा कि भई, दुख होता है यह देख कर कि तुम यहां हो।
उस आदमी ने कहा, 'मुझे देख कर तुम्हें दुख होता है? अरे, मुझे देख कर तुम्हें दुख नहीं होना चाहिए। हालत उलटी है। तुम्हें देख कर मुझे दख होता है। मैं तो जब से इस दीवाल के भीतर आया हं, बाहर आ गया। दुख मुझे होता है कि तुम अभी भी उस बड़े पागलखाने में हो--दीवाल के बाहर जो पागलखाना है। यहां तो थोड़े से चुनिंदे लोग हैं जो पागल नहीं। दीवाल के बाहर है असली पागलखाना।' खलील जिब्रान तो बहत चौंका। बात में थोड़ी सचाई भी थी। रात सो नहीं सका। विचारशील व्यक्ति था, सोचने लगा कि बात में थोड़ी सचाई तो है। दीवाल के बाहर एक बड़ा पागलखाना ही तो है। तुम खुद ही इसका परीक्षण कर सकते हो। दस मिनट के लिए तुम्हारी खोपड़ी में जो भी चलता है उसको कागज पर लिखो। संकोच न करना, संपादन न करना। कुछ काटना नहीं, पीटना नहीं। किसी को बताना नहीं है, द्वार-दरवाजे बंद रखना। सिगड़ी जला कर रखना। जैसे ही लिख लो, जल्दी से डाल देना; किसी के हाथ न लग जाए! इसलिए डरने की कोई जरूरत नहीं है।
जो आए मन में, जैसा आए मन में, लिखना। और तुम बड़े हैरान होओगे। क्या-क्या तुम्हारे मन में आता है! पड़ोसी का कुत्ता भौंकने लगता है और तुम्हारे मन में चला कुछ--कि यह कुत्ता क्यों भौंक रहा है! ये हरामजादे कुत्ते! इनको कोई काम ही नहीं है! किसी को शांति से न रहने देंगे।...चल पडी गाडी, मालगाडी समझो! हर डब्बे में सामान भरा है। तब तुम्हें याद आएगा कि अरे तुम्हारी एक प्रेयसी हुआ करती थी। उसके पास भी कुत्ता था। अब गाड़ी चली। कुत्ते ने सिलसिला शुरू करवा दिया। कुत्ता भी क्या वक्त पर भौंका! कुछ देर प्रेयसी की बातें चलेंगी। फिर उसकी मां ने कैसे बिगाड़ खड़ा किया। उसके दुष्ट बाप ने किस तरह बाधा डाली। समाज किस तरह आड़े आ गया। तुम कहां जाकर पहुंचोगे अंत में, कहना मुश्किल है। और जब तुम लौट कर पूरा कागज पढ़ोगे तो तुम्हें भरोसा ही नहीं आएगा कि इसमें क्या सिलसिला है? क्या तुक है? कोई वचन आधा ही आकर खतम हो जाता है। उसमें पूर्ण विराम भी नहीं लगता। उसके बीच में ही दूसरा वचन घुस जाता है। बीच-बीच में फिल्मी गाने आते हैं--लारे-लप्पा! गीता के वचन भी आते हैं--न हन्यते हन्यमाने शरीरे! कुछ हिसाब ही नहीं। क्या-क्या नहीं आता! पंद्रह मिनट के, दस मिनट के प्रयोग से ही तुम साफ समझ लोगे कि तुम्हारे भीतर जो छिपा है वह विक्षिप्त है। और क्या विक्षिप्तता होगी? तुम यह कागज किसी को बता भी न सकोगे।
- ओशो
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