समाज को छोड़ने का अर्थ है कि समाज ने जो विश्वास दिए हैं उनको छोड़ देना - ओशो
समाज को छोड़ने का अर्थ है कि समाज ने जो विश्वास दिए हैं उनको छोड़ देना - ओशो
जिज्ञासा स्वतंत्र होनी चाहिए। किससे स्वतंत्र? जीवन से, संस्कार से, संप्रदाय से। जो संस्कार से आबद्ध है, समाज और संप्रदाय से आबद्ध है, और जो संस्कारों से घिरा हुआ है, उसके पैर जमीन में गड़े हैं; वह आकाश में उड़ नहीं सकता। किनारे तो उसकी नाव की जंजीरें बंधी हैं; वह आनंद-सागर में यात्रा नहीं कर सकता। लेकिन समाज को छोड़ कर, भाग कर संन्यासी हो जाते हैं। ऐसे सैकड़ों संन्यासियों से मैं निकट से परिचित हूं, जिन्होंने समाज छोड़ दिया, घर छोड़ दिया और परिवार छोड़ दिया। उन संन्यासियों से जब मैं मिलता हं तो उनसे कहता हूं कि समाज छोड़ कर भाग जाने से कुछ भी नहीं होगा, क्योंकि समाज के संस्कार अगर चित्त में बैठे हैं तो समाज के भीतर में आप हैं। घर-बार और मां-बाप को छोड़ कर भाग जाने से कुछ नहीं होगा; मां-बाप ने जो विश्वास दिए थे वे आपके भीतर बैठे हैं तो आप मां-बाप के साथ ही हैं।
समाज और संस्कार को छोड़ने का अर्थ यह नहीं है कि कोई गांव को छोड़ कर जंगल में चला जाए। समाज को छोड़ने का अर्थ है कि समाज ने जो विश्वास दिए हैं उनको छोड़ देना है। बड़े साहस की बात है। जिज्ञासा इस जगत में सबसे बड़े साहस की बात है। इंक्वायरी इस जगत में सबसे बड़े साहस की बात है। अपने मां-बाप को छोड़ना उतना कठिन नहीं, समाज को छोड़ कर भाग जाना उतना कठिन नहीं, जितना समाज के द्वारा दिए गए संस्कारों को छोड़ देना कठिन है। क्यों? क्योंकि डर लगता है अकेला हो जाने का। समाज में, भीड़ में हम अकेले नहीं होते, हजारों लोग हमारे साथ हैं। उनकी भीड़ हमें विश्वास दिलाती है कि जब इतने लोग मानते हैं इस बात को तो वह बात जरूर सत्य होगी। भीड़ विश्वास दिला देती है। मूर्खतापूर्ण बातों पर भी भीड़ विश्वास दिला देती है। अगर भीड़ साथ हो तो व्यक्तियों से ऐसे काम कराए जा सकते हैं जो वे अकेले में करने को कभी राजी न होंगे।
दुनिया में जितने पाप हुए हैं, उनमें अकेले व्यक्तियों ने बड़े पाप नहीं किए हैं, भीड़ ने बड़े पाप किए हैं। भीड़ पाप इसलिए कर सकती है कि उसमें ऐसा लगता है कि जो कहा जा रहा है वह ठीक ही होगा। इतने लोग साथ हैं, इतने लोग नासमझ हो सकते हैं? अगर एक धर्म यह कहे कि हम एक मुल्क पर हमला करते हैं; क्योंकि यह धर्म का जेहाद है; क्योंकि हम धर्म का प्रचार करने जा रहे हैं; दुनिया को धर्म सिखाने जा रहे हैं। अगर एक आदमी को यह कहा जाए कि धर्म के प्रचार में हजारों लोगों की हत्या करनी होगी तो वह आदमी शायद संकोच करे, विचार करे। जब वह देखता है कि लाखों लोग साथ हैं तो अपने विचार की फिक्र छोड़ देता है कि इतने आदमी साथ हैं तो जो कहते होंगे ठीक ही कहते होंगे। इसलिए भीड़ को छोड़ने में डर लगता है। क्योंकि भीड़ को छोड़ने का अर्थ है पूरी जीवन-दृष्टि पर रिकंसीडरेशन करना होगा। इसलिए सारे लोग भीड़ से चिपके रहते हैं। हर आदमी भीड़ से चिपका रहता है।
- ओशो
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