सत्य को शास्त्रों से नहीं, प्यास से पहचाना जाता है - ओशो
सत्य को शास्त्रों से नहीं, प्यास से पहचाना जाता है - ओशो
मुझे संन्यासी मिलते हैं, वे कहते हैं कि मुझे चालीस वर्ष हुए, हम खोज कर रहे हैं किंतु कुछ मिला नहीं। मैं उनसे पूछता हूं कि पहले यह खोजो कि खोजने के पहले प्यास पैदा हो गई कि नहीं? अगर प्यास पैदा नहीं हई तो खोज व्यर्थ है, क्योंकि पानी की पहचान ही नहीं हो सकेगी जब तक प्यास नहीं होगी। मेरे सामने नदी बहती रहे, झरने बहते रहें, और मेरे भीतर प्यास न हो तो पानी को पहचानूंगा कैसे? पानी की पहचान पानी में नहीं, मेरी प्यास में है। यदि मेरे भीतर प्यास है तो पानी पहचान लिया जाएगा। और मेरे भीतर प्यास नहीं है तो पानी पहचाना नहीं जा सकेगा। सत्य तो निरंतर मौजूद है। मेरे भीतर प्यास है तो उसी वक्त पहचाना जा सकेगा। और मेरे भीतर प्यास न हो तो कैसे पहचानूंगा? ।
सत्य को शास्त्रों से नहीं, प्यास से पहचाना जाता है। तो इसके पहले कि प्यास हो... कैसी प्यास हो? जिज्ञासा हो अकेली? जिज्ञासा काफी नहीं है। जिज्ञासा अभीप्सा बने--प्राणों की प्यास बन जाए। और प्राणों की प्यास कैसे बनेगी? कुछ चीजों को देखने से प्राणों की प्यास बन जाएगी। आंख खोलें और चारों तरफ देखें।
वहां दूर इटली में एक साधु हुआ है, और जब वह मर रहा था तो लोगों ने उससे पूछा कि तुम साधु कैसे हुए? उसने कहा कि मैंने आंख खोल कर देखा तो साधु होने के सिवाय कोई उपाय नहीं रह गया। पूछा, आंख खोल कर देखा? हम भी आंख खोल कर देख रहे हैं! उसने कहा, मैंने बहुत कम लोग देखे जो आंख खोल कर देख रहे हों, अधिक लोग आंख बंद किए देख रहे हैं। मैं भी आपसे कहता हूं कि अधिक लोग आंख बंद करके देख रहे हैं। अगर आंख खोल कर देखेंगे तो इतनी प्यास पैदा होगी उसको जानने के लिए कि जो इस सबके पीछे छिपा है, जिसका कोई हिसाब नहीं, सारे प्राण ही प्यास की लपटों में बदल जाएंगे। आंख खोल कर देखने का अर्थ है जो दिखाई पड़ा है, सामान्यतः जो दिखाई पड़ रहा है, वही नहीं, बल्कि सामान्यतः जो दिखाई पड़ रहा है उसके पीछे जो राज छिपे हुए हैं, वह देखना चाहिए।
- ओशो
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