आत्मा अकेलेपन में खिलती है - ओशो
आत्मा अकेलेपन में खिलती है - ओशो
समृद्धि का एकमात्र सुख है कि आप अकेले में हो सकते हैं और दुनिया और अपने बीच स्पेस पैदा कर सकते हैं, जगह पैदा कर सकते हैं, बड़ी जगह पैदा कर सकते हैं। और जितनी आपके और दूसरों के बीच जगह बढ़ जाती है, उतना ही चित्त शांत होता है। दूसरे की मौजूदगी तनाव लाती है। यह आपने कभी खयाल न किया होगा कि दूसरा कुछ भी न करे, सिर्फ मौजूद हो जाए, तो तनाव शुरू हो जाता है। आप रास्ते पर चले जा रहे हैं अकेले, आप दूसरे आदमी होते हैं। रास्ता सन्नाटा है, कोई भी नहीं है, आप बिलकुल दूसरे आदमी होते हैं। हो सकता है, अपने से बात कर रहे हों। मौज में आ गए हों, गीत गुनगुना रहे हों। वह गीत जो अपने बेटे को आपने कभी नहीं गुनगुनाने दिया। लेकिन दो आदमी निकल आए सड़क पर, बस आप बदल गए। सिर्फ दो आदमियों की मौजूदगी आपको तत्काल टेंस कर देती है।
अगर बहुत ठीक से समझें तो दि अदर इज़ दि टेंशन--वह जो दूसरा है, वही तनाव है। वह जो दूसरा है। और वह दूसरे की मौजूदगी बढ़ती जा रही है। चारों तरफ कोई न कोई मौजूद है। सब तरफ कोई न कोई मौजूद है। कहीं भी चले जाएं, कोई न कोई मौजूद है। अकेले होने का कोई उपाय नहीं। इससे एक गहरा तनाव आदमी के मन पर बैठ रहा है। वह तनाव बढ़ती हुई संख्या का सबसे खतरनाक परिणाम है। राजनीतिज्ञों को उसका पता नहीं है, क्योंकि वह उनके लिए सवाल नहीं है। उनके लिए स भोजन पूरा हो जाए, कपड़ा पूरा हो जाए। न हो पाए तो क्या होगा, उनके लिए सवाल यह है। मेरे लिए सवाल यह है कि अगर संख्या बढ़ती चली गई तो आदमी आत्मा खो देगा; क्योंकि आत्मा अकेलेपन में फ्लावर होती है। वह अकेलेपन में खिलती है, लोनलीनेस में।
लेकिन लोनलीनेस नहीं है। पहाड़ पर जाओ तो पीछे और आगे कारें लगी हुई वहां भी पहुंच जाती हैं। बीच पर जाओ तो आपके पहले भी कारें हैं, पीछे भी कारें हैं। अमरीका का बीच देखने लायक हो गया है। लोग तीसत्तीस, चालीस-चालीस, पचास-पचास, सौ-सौ मील छुट्टी के दिन भागे हुए चले जा रहे हैं। लेकिन गाड़ियां नेक टु नेक फंसी हैं। भाग रहे हैं कि एकांत में जा रहे हैं। लेकिन बहुत लोग जा रहे हैं वहां एकांत में। और बीच पर पहुंचे तो लाख आदमी वहां खड़े हैं! भीड़ के बाहर होना मुश्किल हुआ जा रहा है। महावीर और बुद्ध बड़े ठीक मौके पर हो गए; अब होते तो पता चलता! अब जिसको होना है उसको पता चल रहा है कि क्या कठिनाई है। लिविंग स्पेस नहीं बची है, अकेले खड़े नहीं हो सकते। अकेला होना असंभव है। और जो आदमी अकेला न हो पाए, वह आदमी ठीक अर्थों में जी ही नहीं पाता। वह बाहर ही बाहर घूमता रहता है! कोई न कोई मौजूद है, कोई न कोई मौजूद है, सब तरफ कोई न कोई मौजूद है। कहीं न कहीं से कोई न कोई देख रहा है।
- ओशो
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