जब भी भीतर कुछ जगता है तब फैलना चाहता है - ओशो
जब भी भीतर कुछ जगता है तब फैलना चाहता है - ओशो
अभी आइंस्टीन के बाद यह पता चला है कि विश्व जो है, ब्रह्मांड जो है, वह फैल रहा है, वह एक्सपैंड कर रहा है। वह ठहरा हुआ नहीं है। सब तारे अरबों-खरबों मील प्रति सेकेंड के हिसाब से फैलते चले जा रहे हैं, जैसे कोई हवा का फुग्गा हो रबर का, और उसमें हम हवा भरते जाएं और वह फैलता चला जाए। ऐसा हमारा यह विश्व ठहरा हुआ नहीं है, यह फैलता चला जा रहा है। इसकी सीमाएं रोज बड़ी हो रही हैं। यह अंतहीन फैलाव जिसे पहली दफे ब्रह्म शब्द सूझा होगा, वह आदमी अदभुत रहा होगा, क्योंकि ब्रह्म का मतलब होता है फैलना-फैलते ही चले जाना; फैलते ही चले जाना।
लेकिन कितना अदभुत है, जिन लोगों ने ब्रह्म शब्द खोजा, उन्हीं लोगों ने सिकोड़ने की फिलासफी खोजी। वे कहते हैं, सिकुड़ते चले जाओ--अपरिग्रह, अनासक्ति, त्याग, वैराग्य--सिकुड़ो, छोड़ो, जो है उससे भागो और सिकुड़ते जाओ, सिकुड़ते जाओ, जब तक बिलकुल मर न जाओ तब तक सिकुड़ते चले जाओ। संतोष इसका आधार बना, सिकुड़ना इसका क्रम बना, और भारत की आत्मा सिकुड़ गई और संतुष्ट हो गई। अब जरूरत है कि फैलाओ इसे। इस चौराहे पर फैलने का निर्णय लेना पड़ेगा। छोड़ो संतोष, लाओ नए असंतोष, नए डिसकंटेंट। दूर को जीतने की, दूर को पाने की, दूर को उपलब्ध करने की आकांक्षा को जगाओ, अभीप्सा को जगाओ, कि जो भी पाने योग्य है पाकर रहेंगे; जो नहीं पाने योग्य है उसको भी पाकर रहेंगे; तो इस मुल्क की प्रतिभा में प्राण आएं, तो इसके भीतर से कुछ जगे। क्योंकि जब भी कुछ जगता है तब फैलना चाहता है। और जब फैलना नहीं चाहते आप तो सोने के सिवाय कोई उपाय नहीं रह जाता। सो जाता है सब।
- ओशो
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