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    सारी दुनिया आध्यात्मिक रूप से गुलामी में है - ओशो

    The whole world is in spiritual slavery - Osho

      

    सारी दुनिया आध्यात्मिक रूप से गुलामी में है - ओशो 

    मेरी बात को मानने से आपका कोई विकास नहीं होगा। किसी की बात मानने से किसी का कभी कोई विकास नहीं होता है। लेकिन किसी की भी बात समझने से जरूर विकास होता है। क्योंकि जितना आप समझने की कोशिश करते हैं उतनी आपकी समझ विकसित होती है। लेकिन हम सारे लोग उत्सुक होते हैं मानने या न मानने को। क्योंकि समझने में श्रम करना पड़ता है, मानने न मानने में श्रम की कोई भी जरूरत नहीं पड़ती। और हम मानसिक रूप से इतने आलसी हो गए हैं कि हम मन से कोई भी श्रम नहीं करना चाहते हैं। इसीलिए दुनिया में इतने अनुयायी दिखाई पड़ते हैं; दुनिया में इतने वाद, इतने इज्म दिखाई पड़ते हैं। इसीलिए दुनिया में इतने गुरु दिखाई पड़ते हैं, इतने शिष्य दिखाई पड़ते हैं। 

            जिस दिन मनुष्य मानसिक श्रम करने को राजी होगा, इस दुनिया में कोई अनुयायी नहीं होगा, कोई वाद नहीं होगा, कोई गुरु, कोई शिष्य नहीं होगा। जब तक हम मानसिक रूप से श्रम करने को राजी नहीं हैं तब तक दुनिया में ये सब नासमझियां जारी रहेंगी। क्योंकि जो लोग भी श्रम नहीं करना चाहते वे किसी दूसरे के श्रम पर ही आधारित होना चाहते हैं। यह भी एक तरह का शोषण है। मैं सोचूं और आप मान लें, तो आपने मेरा शोषण किया। मैं सोचूं और आपको जबरदस्ती मना दूं, तो मैं आपका शोषण कर रहा हूँ। और दुनिया में आर्थिक शोषण इतना ज्यादा नहीं है जितना । मानसिक और आध्यात्मिक शोषण है। पैसे का शोषण इतना बड़ा नहीं है, क्योंकि किसी का पैसा छीन लेने से आप उसका कुछ भी नहीं छीनते हैं, लेकिन जब किसी आदमी की आत्मा छिन जाती है तो उसका सब कुछ छिन जाता है।

            सारी दुनिया आध्यात्मिक रूप से एक गुलामी में है और गुलामी का कारण है एक मानसिक आलस्य, एक मेंटल लेथार्जी। भीतर हम कुछ भी नहीं करना चाहते हैं। इसलिए कोई भी जोर से कह दे कि मेरी बात मानो, मैं भगवान हूं; या चार नासमझों को इकट्ठा कर ले और बाजार में इंडी पिटवा दे कि एक बहुत बड़े महात्मा गांव में आ रहे हैं, तो हम मानने को एकदम तैयार हो जाते हैं। हम मानने को तैयार ही बैठे हैं--कोई आ जाए और हमें कहे कि मैं ठीक हं; जोर से कहना चाहिए; और वस्त्र उसके रंगे हए होना चाहिए; और उसके आस पास प्रचार की हवा होनी चाहिए; फिर हम मानने को तैयार हो जाते हैं।

            क्या हम सोचने को कभी भी तैयार नहीं होंगे? मनुष्य-जाति का जन्म ही नहीं होगा अगर मनुष्य सोचने को तैयार नहीं होता है। लेकिन हम सोचने को बिलकुल तैयार नहीं हैं। मेरा कोई भी आग्रह नहीं है कि मैं जो कहता हं उसे मानें; और इसलिए न मानें इसका भी आग्रह नहीं है। आग्रह कुल इतना है कि जो मैं कहता हूं उसे सुनें, समझें। वही मुश्किल हो गया, क्योंकि भाषा ही ऐसी मालूम पड़ती है। मैं कोई और भाषा बोलता हूं, आप कोई और भाषा समझते हैं।

     - ओशो 

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