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    अंधे लोग अंधी धारणाओं में जीते चले जाते हैं - ओशो

     

    Blind people go on living in blind beliefs - Osho


    अंधे लोग अंधी धारणाओं में जीते चले जाते हैं - ओशो 

    तुम्हारे मर्यादा पुरुषोत्तम राम तक स्वर्ण-मृग के पीछे दौड़ रहे हैं! असली सीता को गंवा बैठे नकली स्वर्ण-मृग के पीछे! और यह सबकी कथा है: असली को गंवा बैठते हैं लोग नकली के पीछे।। सोने के मृग के पीछे भागे। पागल से पागल आदमी को भी समझ में आ जाएगा कि सोने के मृग कहीं होते हैं! जगत को तो कहते हैं मृग-मरीचिका। यही राम जगत को तो कहते हैं कि जैसे सपने में देखा गया, माया, मृग-मरीचिका, जैसे कि मृग प्यासा भटक जाए मरुस्थल में और दूर उसे सरोवर दिखाई पड़े। और यही राम सोने के मृग के पीछे दौड़ रहे हैं। किसकी मरीचिका बड़ी है? अगर मृग को मरुस्थल में प्यास के कारण दूर सूरज की किरणों के पड़ने से...। 

            सूरज की किरणों का एक ढंग है। जब खाली रेत पर वे पड़ती हैं और रेत उत्तप्त हो जाती है, तो उत्तप्त रेत किरणों को वापस लौटाने लगती है। उन किरणों की लौटती हुई तरंगें दूर से यूं मालूम पड़ती हैं जैसे कि पानी लहरें ले रहा हो। मालम ही नहीं पडती, प्रमाण सहित मालम पडती हैं। क्योंकि जब सरज की किरणें वापस लौटती हैं तो उनकी लहरें जलवत ही होती हैं। तरंगें होती हैं और उन तरंगों में पास खड़े वृक्षों की प्रतिछाया बनती है, जैसे सरोवर में बनती है। उस प्रतिछाया को देख कर मृग को भरोसा आ जाता है, तर्क पूरा हो जाता है: पानी होना ही चाहिए, नहीं तो छाया कैसे बनेगी? और प्यास इतनी है कि पानी को मान लेने की स्वाभाविकता है। प्यास जितनी बढ़ जाती है उतनी ही आंखें प्यास से आच्छादित हो जाती हैं। जहां पानी नहीं है वहां भी पानी दिखाई पड़ने लगता है। और फिर प्रमाण सहित। 

            तो मृग अगर धोखा खा जाए, क्षमा-योग्य है; मगर राम को मैं क्षमा न कर सकूँगा, राम तो बिलकुल अक्षम्य हैं। ये बातें तो ज्ञान की, और जो कर रहे हैं वह मृग से भी गया-बीता। सोने का मृग नहीं होता, इसे बुद्ध से बुडू आदमी को भी समझने में अड़चन न आएगी। लेकिन राम सोने के मृग के पीछे चले गए और गंवा बैठे सीता को। और राम ही गलती में थे, ऐसा नहीं था; सीता भी गलती में थी। क्योंकि जब राम चिल्लाए दर जंगल से कि मुझे बचाओ, मैं खतरे में पड़ गया हूं, तो सीता ने धक्के दिए लक्ष्मण को कि तू जा। राम कह गए थे पहरा देना। लक्ष्मण दुविधा में पड़ गया--राम की मानूं कि सीता की मानूं? और सीता ने ऐसी चोट की लक्ष्मण पर कि तिलमिला उठा। कहीं घाव तो था, छू दिया सीता ने। वह घाव और सीता का छूना बड़ा अर्थपूर्ण है। सीता ने कहा, 'मुझे पहले से ही पता है कि तेरी नजर मुझ पर है, कि राम अगर मर जाएं तो तू मुझ पर कब्जा कर ले।'

            और सीता ने यह बात यूं ही नहीं कही होगी। लक्ष्मण के इरादे नेक इरादे रहे होंगे! और इसीलिए तो हम पति के छोटे भाई को देवर कहते थे। देवर का मतलब होता था: दूसरा वर। बड़ा विदा हो तो सीनियारिटी देवर की है। देवर का मतलब ही यह होता है कि नंबर दो। पहला नंबर हटे कि नंबर दो कब्जा करे। 'देवर' शब्द अच्छा नहीं है, घृणित है। उस शब्द का उपयोग भी नहीं होना चाहिए। दूसरा वर! पंक्ति में खड़ा है कि बड़े भैया, अब जाओ भी! अब बहुत हो गया। अब कुछ थोड़ा जो बचा-खुचा है, मुझ गरीबदास को भी मिले! यह लक्ष्मणदास पहले से ही इरादा यूं रखते थे। 

            सीता ने चोट गहरी की। और चोट असली रही होगी, नहीं तो लक्ष्मण मुस्कुरा कर टाल जाता। कहताः 'हंसी-मजाक न कर भाभी। मैं जाने वाला नहीं हूं।' लेकिन यह चोट कहीं पड़ी, घाव को छू गई, मवाद निकल आई होगी। गुस्से में आ गया। यह गुस्सा यूं ही नहीं आता। जब तुम्हें कोई गाली देता है, और गाली अगर खल जाती है तो मतलब यह था कि उसने छू दिया कोई तुम्हारा कोमल अंग, जिसे तुम बचाए फिरते थे। मुझे इतनी गालियां पड़ती हैं, कोई चिंता नहीं, कोई कोमल अंग नहीं, कुछ छिपाया नहीं। मजा लेता हूं कि कैसे-कैसे प्यारे लोग हैं! कितना श्रम उठाते हैं! जितनी मेहनत गालियां देने में करते हैं, इतने में उनका गीत फूट सकता है। जितना श्रम मुझे गालियां देने में बिता रहे हैं, इतना श्रम अगर गीतों में लगा दें तो उनके जीवन में भी झरने बह उठे! उन पर मुझे दया आती है। 

            लेकिन लक्ष्मण क्रोध में आ गया। चल पड़ा। इधर लक्ष्मण भी छोड़ कर चला गया, मतलब वह भी मानता है कि खतरा है, स्वर्ण-मृग सच्चा है, स्वर्ण-मृग के साथ पैदा हआ खतरा सच्चा है। राम, जो कि परमात्मा के पर्यायवाची हैं इस देश में, अर्थात सर्वव्यापी हैं, लेकिन इतना न समझ पाए, यह सोने के मृग में व्याप्त न हो पाए। सर्वज्ञ हैं, सब जानते हैं, और इतना न जान पाए कि सोने के मृग नहीं होते! यह कैसी सर्वज्ञता? यह कैसा सर्वव्यापीपन? यह सब बकवास है। और सर्वशक्तिशाली हैं, तो सर्वशक्तिशाली को क्या खतरा हो सकता है जो वह चिल्लाए कि मुझे बचाओ? अब इसको कौन बचाएगा, सर्वशक्तिशाली को कौन बचाएगा? लेकिन अंधे लोग अंधी धारणाओं में जीते चले जाते हैं--न प्रश्न उठाते, न पूछते, कि एक बार पुनर्विचार तो करें। 

            और यूं सीता चोरी गई। और सीता वास्तविक थी। और सीता का यह अपहरण, इसमें तीनों का हाथ है-- राम का, लक्ष्मण का, सीता का। रावण का अकेला जिम्मा नहीं है। रावण नंबर चार है। अगर इन तीन ने गलती न की होती तो रावण चुरा न सकता था। लेकिन यही सबकी दशा है। अतीत में जी रहे हैं--जो नहीं है। और भविष्य में जी रहे हैं--जो नहीं है। और जो है। उसको गंवा रहे हैं।

    - ओशो 

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