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    क्रांति का समय - ओशो

    Revolution Time - Osho

    क्रांति का समय - ओशो 

            एक बोधिधर्म नाम का भिक्षु था। वह कोई चौदह सौ वर्ष पहले चीन गया। वहां के सम्राट व ने उसका स्वागत किया। व ने जो वहां का सम्राट था, बौद्धधर्म के प्रचार के लिए करोड़ों रुपए खर्च किए थे। हजारों भिक्षुओं को रोज भोजन देता था। हजार में मंदिर बनवाए थे, बुद्ध की लाखों प्रतिमाएं बनायी थीं। एक ही मंदिर बनवाया था उसने, जिसमें बुद्ध की दस हजार प्रतिमाएं रखवाई थीं। वह दस हजार बुद्धों वाला मंदिर अब भी शेष है। तो जब बोधिधर्म चीन पहुंचा तो वू भी उससे मिलने आया और उसने कहा, क्या मैं पूछ सकता हूं, मैंने इतने मंदिर बनवाए, इतने भिक्षुओं। को मैंने दान दिया, धर्म की मैंने इतनी प्रभावना की, दूर-दूर तक धर्मशास्त्र बंटवाए, धर्म का प्रचार करवाया, इन सबका फल क्या है।

            बोधिधर्म ने कहा, कुछ भी नहीं। सम्राट तो बहुत हैरान हो गया। उसके भिक्षुओं ने उसको यही समझाया था कि इसका फल है, तुम्हें मोक्ष मिल जाएगा, स्वर्ग मिल जा एगा। यह सब समझाया था और बोधिधर्म ने कहा, कुछ भी नहीं, फल तो कुछ भी नहीं है। लेकिन पाप जरूर तुम्हें लगा। वू ने कहा, क्या कहते हैं आप! इस सबसे मुझे पाप लगेगा? बोधिधर्म ने कहा, इससे आपका यह खयाल मजबूत हुआ कि मैं कुछ हूं, मैंने इतना किया, इतने मंदिर बनवाए, इतने धर्मशास्त्र छपवाए, इतना प्रचा र करवाया। इससे आपको यह खयाल मजबूत हुआ कि मैं कु और जगत में एक ही पाप है, इस बात का बोध कि मैं कुछ हूं और एक ही पूण्य है, इस बात का अनुभव कि मैं कुछ भी नहीं हूं। वू तो नाराज हो गया, क्योंकि जिसने इतना किया हो और भिक्षु उससे कहे, इसका कोई फल नहीं है, उलटा पाप है। तो वह नाराज होकर चला गया और उसने आ ज्ञा दे दी कि बोधिधर्म उसके राज्य में नहीं ठहर सकेगा। बोधिधर्म को आज्ञा आयी ि क वू ने कहलवाया है कि तुम इस राज्य में नहीं ठहर सकोगे।

            बोधिधर्म ने कहा, वह गलती में है। वह अगर चाहता कि मैं यहां ठहरूं तो भी मैं ठहरने वाला नहीं था। ऐसे पापी राज्य में मैं रुकुंगा भी कैसे? उसको कहना कि वह चाहता भी कि मैं ठहरूं तो मैं ठहरने वाला नहीं था। उसकी आज्ञा की कोई जरूरत नहीं, मैं तो जा ही रहा हूं। उसके राज्य को छोड़कर बोधिधर्म दूसरे राज्य में चला गया। नदी के उस पार निकल गया। अब वू की मृत्यु आयी, कोई दस वर्ष बाद! रोज-रोज वह सोचता रहा। उस बोधिधर्म की बात उसके प्राणों को छेदती रही रोज-रोज कि उसने कहा है कि कोई फल नहीं है इसका। बल्कि पाप है, क्योंकि यह खयाल पैदा हो गया है कि मैं कुछ हूं। रोज-रोज वह सोचता रहा। फिर जैसे-जैसे मौत करीब आई, उसे लगना शुरू हुआ कि मैं तो ना कुछ हो जाऊंगा। और जब कल मृत्यु मुझे ना कुछ कर ही देगी तो मेरा यह खयाल कि मैं कुछ था, मैंने इतना किया था, मैं यह था, मैं वह था, इसका क या मूल्य रहेगा, क्या अर्थ रहेगा? 

            मरते वक्त उसने खबर भिजवायी, एक संदेशवाहक दौड़ाया कि जाओ और बोधिधर्म को बुला लाओ। मुझे अनुभव हो रहा है कि शायद वही ठीक कहता था। मैं तो डूबता जा रहा हूं, सब विलीन होता चला जा रहा है। बोधिधर्म के पास खबर पहुंची। बोधिधर्म ने कहा, मैं चलता तो हूं, लेकिन जिसकी खबर तुम लेकर आए हो, वह समाप्त हो गया। और बहुत देर हो गयी। जब मैंने कहा था, अगर वह तभी जान लेता कि मैं कुछ भी नहीं हूं तो परम जीवन का उसे अनुभव हो जाता। मृत्यु के क्षण में तो सभी जानते हैं कि हम कुछ भी नहीं हैं, लेकिन जीवन में जो जान लेते हैं, वे धन्यभागी हैं। जीवन में ही जो इस सत्य को जान लेता है कि मैं कुछ भी नहीं हूं। मृत्यू में तो इस सत्य को जान लेता है कि मैं कुछ भी नहीं हूं। मृतयु में तो इस सत्य का सभी को जान ही लेना पड़ता है। लेकिन तब बहुत देर हो गयी, तब कोई क्रांति का समय न रहा। लेकिन जीवन में ही जो जान लेता, जीते जी जो जान लेता है कि मैं कुछ भी नहीं हूं, वही धन्यभागी है।  

    - ओशो 

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