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    मनुष्य का स्वयं की श्रेष्ठता का अहंकार - ओशो

     
    Man's ego of his own superiority - Osho

    मनुष्य का स्वयं की श्रेष्ठता का अहंकार - ओशो

    जब पहली बार गेलीलियों और उसके साथियों ने कहा कि सूरज पृथ्वी का चक्कर न हीं लगाता है, पृथ्वी ही चक्कर लगाती है सूरज के तो मनुष्य के अहंकार को बड़ा । धक्का पहुंचा। धर्मगुरुओं ने कहा, यह कैसे हो सकता है ? परमात्मा ने विशेष रूप से मनुष्य को बनाया है और सारा जगत मनुष्य के उपभोग के लिए बनाया है। तो ि जस पृथ्वी पर मनुष्य रहता है, पह पृथ्वी सूरज के चक्कर कैसे लगा कसती है, सूर ज ही चक्कर लगाता है पृथ्वी के। गेलीलियो को बुला कर अदालत में कहा गया कि माफी मांग लो, ऐसी भूल की बातें मत करो। आदमी जिस पृथ्वी पर रहता है, वह कैसे सूरज का चक्कर लगा सकती है, सूरज ही चक्कर लगाता है। 

            लेकिन धीरे-धीरे जितनी हमारी समझ बढ़ी, पता चला कि पृथ्वी सेंटर नहीं है विश्व का कि सारा विश्व उसका चक्कर लगाए। पृथ्वी को सेंटर मानने को खयाल हमें पैदा हुआ था, क्योंकि हम अपने को सेंटर मानने के खयाल में हैं। हम जगत के केंद्र हैं, सारा जगत हमारे इर्द गिर्द चक्कर लगाता है सब कुछ हैं, बीच में यह जो मनुष्य है मनुष्य है, यह केंद्र है और बाकी सारा जगत चक्कर लगाता है। हजारों वर्षों से, धार्मिक व्यक्ति यह कहते रहे हैं कि मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि किन्हीं और प्राणियों के बिना पूछे ही हम यह घोषणा करते रहे हैं । क मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। न तो हमने चीटियों से पूछा है, न हमने पक्षियों से पूछा है। यह इक तरफा गवाही हमने स्वीकार कर ली है। अपने ही मुंह से कहते रहे हैं कि मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। वह सरताज है सृष्टि का। बिना किसी प्राणी से पूछे हमने यह घोषणा कर दी है और चूंकि किसी प्राणी को इस घोषणा का पता भी नहीं है, इसीलिए कोई प्रतिवाद भी नहीं आता है, कोई उनका भी नहीं करता है।

            हमने अपने कोने में बैठे हुए घोषणाएं करते रहते हैं कि हम यह हैं, हम वह हैं। अगर पशु पक्षियों से पूछा जाए और किसी दिन हम जान सकें कि वे क्या सोचते हैं तो शायद ही कोई ऐसे प्राणी की जाति मिले, जो अपने मन में यह न सोचती हो । क हम सर्वश्रेष्ठ हैं। चीटियां सोचती होंगी हम, बंदर सोचते होंगे हम। डार्विन ने कह दिया है कि मनुष्य विकसित हुआ है बंदरों से। अगर बंदरों से पूछा जाए तो बंदर यह कभी मानने को राजी न होंगे कि आदमी उनके ऊपर एक विकास है। वह तो यही मानेंगे कि आदमी जो है, वह हमारा एक पतन है। हम दरख्तों पर कूदते, छलां गते हैं, आदमी जमीन पर सरकता है। यह हमारा पतन है, हमारी जाति से कुछ लोग पतित हो गए हैं नीचे और वे आदमी हो गए हैं। यह एवोलूशन नहीं है। अगर बंदरों का कोई डार्विन होगा तो इसको एवोलूशन या विकास मानने को तैयार नहीं होगा कि आदमी विकसित हो गया है। लेकिन आदमी मानने को राजी हो गए। आदमी के अहंकार को जो भी चीज स्पष्ट करती है, वह मानने को एकदम राजी ह ो जाता है। पृथ्वी केंद्र थी, मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। लेकिन धीरे-धीरे रोज रोज ये बातें छिनती चली गयी। विज्ञान से रोज-रोज की। पहली चोट यह हुई कि पृथ्वी केंद्र न रही। जिस दिन पृथ्वी केंद्र न रही, उसी दिन बहुत बड़ा धक्का मनुष्य के अहंकार को पहुंचा।

    - ओशो

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