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    द्रोणाचार्य जैसा छल वाला आदमी खोजना कठिन है - ओशो

    It is difficult to find a deceitful man like Dronacharya - Osho

     

    द्रोणाचार्य जैसा छल वाला आदमी खोजना कठिन है - ओशो 

    'जिसमें छल मिला हुआ है वह सत्य नहीं है।' क्या बकवास और फिजूल की बातें! इसको कहने की जरूरत है कि जिसमें छल मिला है वह सत्य नहीं है? मगर ये तरकीबें हैं। ये तरकीबें हैं यह बताने की कि हमारा सत्य ही सत्य है, औरों के सत्य में छल मिला हुआ है। यह दुकानदारी की भाषा है, यह व्यवसायिक भाषा है--कि असली घी यहीं बिकता है, बाकी सब घी नकली है। जैन शास्त्र कहते हैं कि जैन शास्त्र ही सदशास्त्र हैं और बाकी सब शास्त्र असद; जैन गुरु ही सदगुरु हैं, बाकी सब गुरु कुगुरु; जैन धर्म ही सत्य धर्म है, बाकी सब धर्म कुधर्म हैं। और कुधर्म से बचना, क्योंकि उसमें छल है। जहां छल है वहां सत्य नहीं। यही महाभारत भी कोशिश कर रहा है कि जिसमें छल मिला हो वहां सत्य नहीं है। हालांकि महाभारत पूरा का पूरा छल से भरा हुआ है। छल ही छल है। 

            द्रोणाचार्य की इतनी प्रशंसा है महाभारत में, उनको महागुरु कहा है और इससे ज्यादा छल वाला आदमी खोजना कठिन है। इसने एकलव्य को इनकार कर दिया शिक्षा देने से, क्योंकि एकलव्य शूद्र है। सत्य भी इसकी फिकर करता है कि कौन ब्राह्मण है, कौन शूद्र है? और द्रोण अगर इतने बड़े गुरु थे तो इनके पास इतनी भी आंखें नहीं थीं कि एकलव्य की संभावना को पहचान सकते? एकलव्य कहीं ज्यादा प्रामाणिक व्यक्ति सिद्ध हुआ। उसने दूर जंगल में जाकर एक प्रतिमा बना ली द्रोण की। मान लिया जिसको गुरु मान लिया। गुरु ने इनकार भी कर दिया तो भी उसने अपनी धारणा को नहीं तोड़ा। गुरु के इनकार ने भी उसके समर्पण को नहीं मिटाया। यह समर्पण है! गुरु ने ठुकराया तो भी उसने गुरु को नहीं ठुकराया। एक दफे जो कर दिया समर्पण तो कर दिया। 

            तो जंगल में मूर्ति बना कर ही धनुर्विद्या का अभ्यास शुरू कर दिया। और जल्दी ही खबरें आने लगी कि उसकी धनुर्विद्या ऐसी प्रकीर्ण होती जा रही है कि द्रोणाचार्य जिन शिष्यों को तैयार कर रहे हैं--वे सब राजपुत्र थे--उन सबको मात कर देगा वह। अर्जुन पर बड़ी आशा थी, क्योंकि अर्जुन उनका श्रेष्ठतम धनुर्धर था। और जब यह भी खबर आई कि अर्जुन भी एकलव्य के सामने कुछ नहीं है, तो यह तथाकथित महान गुरु, यह महान ब्राह्मण, यह राजपत्रों को धनर्विद्या सिखाने वाला, महाभारत में जिसकी प्रशंसा ही प्रशंसा भरी है, यह दक्षिणा लेने पहुंच गया--उस शिष्य के पास, जिसको कभी इसने दीक्षा दी ही नहीं थी! अब बेईमानी की भी कोई सीमा होती है! छल और पाखंड का भी कोई अंत है! जिसको दीक्षा नहीं दी उससे दक्षिणा लेने जाना, शर्म भी न आई!

            मुझे एकलव्य मिल गया होता तो कहता, 'थूक इस आदमी के मुंह पर! जी भर कर थूक! इसको पीकदानी समझ! यही इसकी दक्षिणा है। यह शूद्र है, तू ब्राह्मण है। इसकी छाया भी पड़ जाए तो स्नान कर!' मगर एकलव्य की भी प्रशंसा करता है महाभारत। प्रशंसा का कारण यह है कि उसने दक्षिणा देने की तैयारी दिखलाई। और दक्षिणा में क्या मांगा द्रोणाचार्य ने? उसके दाएं हाथ का अंगूठा मांग लिया! और क्या छल होगा? यह अंगूठा इसलिए मांग लिया कि न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। यह अंगूठा कट गया तो धनुर्विद्या खतम। फिर यह अर्जुन का प्रतियोगी न रह जाएगा। यह राजपुत्र को बचाने के लिए गरीब के बेटे की हत्या। जिससे धन मिल रहा है उसको बचाने के लिए, उसकी हत्या जिसके पास कुछ भी नहीं है और जिसने अपना सब देने की तैयारी दिखलाई। उसने तत्क्षण, देर की न अबेर की, सोच किया न विचार किया और अंगूठा काट कर दे दिया। यह द्रोणाचार्य की प्रशंसा इसलिए कि उन्होंने शूद्र को इनकार किया। और एकलव्य की प्रशंसा इसलिए कि उसने इस पाखंडी और छली आदमी को अपना अंगूठा काट कर दे दिया। उपदेश यह है कि गुरु सदा ऐसा करेंगे और शिष्यों को सदा ऐसा करना चाहिए। 

    - ओशो 

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