मैं कहता कुछ हूँ , आप समझते अपने हिसाब से हैं - ओशो
मैं कहता कुछ हूँ , आप समझते अपने हिसाब से हैं - ओशो
मैं एक गांव में ठहरा हुआ था। जिस घर में रुका हुआ था उस गांव के कलेक्टर की पत्नी मुझसे मिलने आई। जब कालेज में मैं पढ़ता था तो वह महिला मेरे साथ पढ़ती थी। सर्दी की रात थी, मैं कंबल अपने पैरों पर डाले हए बिस्तर पर बैठा था। वह मिलने आई, वह मुझसे गले मिल गई। न मालूम बचपन की और कालेज के दिनों की बहुत-सी स्मृतियां सुनाने लगी। बैठ गई पलंग पर। मैंने उससे कहा कि सर्दी है। कंबल उसने अपने पैरों पर डाल लिया। हम दोनों उस पलंग पर कंबल डाले बैठे रहे। दूसरे दिन सभा में एक आदमी ने चिट्ठी लिख कर मुझे पूछा कि कल रात एकांत में एक स्त्री के साथ, एक ही बिस्तर पर, एक ही कंबल में आप थे या नहीं? हां या न में जवाब दीजिए! और हम गोल-मोल उत्तर पसंद नहीं करते हैं, या तो हां कहिए या न कहिए। मैंने कहा, बिलकुल था; हां।
घर लौट कर आया, घर के लोग कहने लगे, आप बिलकुल पागल हैं। आपने हां कहा, लोग क्या समझ होंगे! मैंने कहा, बात सच्ची थी, हम एक बिस्तर पर थे, एक ही कंबल में थे, रात भी थी, वे तो ठीक ही कह रहे थे। उन्होंने कहा, यह सवाल नहीं है कि वे क्या...उनका मतलब आप नहीं समझे। उनका मतलब बिलकुल दूसरा था। सारे गांव में क्या अफवाह उड़ रही है आपको पता नहीं है कि आप एक स्त्री के साथ, एक ही बिस्तर पर, एक ही कंबल में थे। मैंने कहा, सिवाय इसके कि हम भाषाएं अलग बोलते हैं और क्या समझा जा सकता है? क्या समझा जा सकता है? इसके सिवाय कोई उपाय नहीं है। फिर मुझसे लोग पूछते हैं कि जवाब दीजिए और जवाब गोल-मोल नहीं होना चाहिए, सीधा-सीधा होना चाहिए, वे हां और न में जवाब चाहते हैं। और तब मैं बहुत चकित भी होता हं, रोता भी हूं और हंसता भी हूं। कैसे लोगों के साथ...!
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