सत्संग का अर्थ -ओशो
सत्संग का अर्थ -ओशो
सत्संग का यही अर्थ है। जिस निमित्त परमात्मा की याद आ जाए, वही सत्संग है। सागर में उठते हुए तूफान को देखकर परमात्मा की याद आ जाए, तो वहीं सत्संग हो गया। आकाश में उगे चांद को देखकर याद आ जाए, तो वहीं सत्संग हो गया। जहां सत्य की याद आ जाए, वहीं सत्य से संग हो जाता है।
और परमात्मा तो सभी में व्याप्त है। इसलिए याद कहीं से भी आ सकती है—किसी भी दिशा से। और परमात्मा तुम्हें सब दिशाओं से तलाश रहा है, खोज रहा है। कहीं से भी रंध्र मिल जाए, जरा सी संधि मिल जाए, तो उसका झोंका तुममें प्रवेश हो जाता है। वृक्षों की हरियाली को देखकर, उगते सूरज को देखकर, पक्षियों के गीत सुनकर, पपीहे की ‘पी कहां' की आवाज सुनकर.... । और अगर तुम गौर से सुनो तो हर आवाज में उसी की आवाज है। तुम्हें अगर मेरी आवाज में उसकी आवाज सुनाई पड़ी, तो उसका कारण यह नहीं है कि मेरी आवाज ही केवल उसकी आवाज है, उसका कुल कारण इतना है कि तुमने मेरी ही आवाज को गौर से सुना। सभी आवाजें उसकी हैं। जहां भी तुम शांत होकर, मौन होकर, खुले हृदय से सुनने को राजी हो जाओगे, वहीं से उसकी याद आने लगेगी।
खुदा के कायल होना ही होगा, क्योंकि खुदा तो सब तरफ मौजूद है। आश्चर्य तो यही है कि कुछ लोग कैसे बच जाते हैं खुदा के कायल होने से? चमत्कार है कि परमात्मा से भरे इस अस्तित्व में कुछ लोग नास्तिक रह जाते हैं? उनके अंधेपन का अंत न होगा! वे बहरे होंगे। उनके हृदय में धड़कन न होती होगी। उनके हृदय पत्थर के बने होंगे। यह असंभव है! अगर कोई जरा आंख खोले तो चारों तरफ वही मौजूद है, उसी की छवि है। मंदिरों और मस्जिदों में जाने की जरूरत इसीलिए पड़ती है कि हम अंधे हैं। अन्यथा जहां हो वही मंदिर है—खुली आंख चाहिए। थोड़े जाग्रत होकर जहां भी बैठ जाओगे, वहीं तुम उसकी वर्षा पाओगे। बरस ही रहा है। उसकी वर्षा अनवरत है।
-ओशो
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