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    दूसरों के जलाये हुए दीये का कोई मूल्य नहीं है - ओशो



    एक अंधेरी रात में एक युवक ने एक साधु से पूछा कि क्या आप मुझे सहारा न देंगे ? अपने गन्तव्य पर पहुंचने में? गुरु ने एक दीया जलाया और उसे साथ लेकर चला। और जब वे आश्रम का द्वार पार कर चुके तो साधु ने कहा-अब मैं अलग हो जाता हूं। कोई किसी का साथ नहीं कर सकता है और अच्छा है कि तुम साथ के आदी हो जाओ, मैं इसके पहले विदा हो जाऊं। इतना कह कर उस घनी रात में, अंधेरी रात में, उ सने उसके हाथ के दीये को भी फूंक कर बुझा दिया। वह युवक बोला-यह क्या पाग लपन हुआ? अभी तो आश्रम के हम बहार भी नहीं निकल पाये, साथ भी छोड़ दिया और दीया भी बुझा दिया। उस साधु ने कहा-दूसरों के जलाये हुए दीये का कोई मूल्य नहीं है। अपना ही दीया हो तो अंधेरे में काम देता है, किसी  दूसरे के दीये काम नहीं देते। खुद के भीतर से प्रकाश निकले तो ही रास्ता प्रकाशित होता है और किसी तरह रास्ता प्रकाशित नहीं होता।

    ओशो 

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