विचार आधारभू है, वहां क्रांति का बीज है, जो विचार करेगा, वह आज नहीं कल, क्रांति से गुजरेगा - ओशो
आदमी के शोषण के लिए धर्म के नाम पर बहुत दुकानें हैं
आप चाहे हिंदू हों, चाहे मुसलमान, चाहे ईसाई। अगर आप विश्वास करते हैं, इ समें कोई फर्क नहीं पड़ता है कि आपने आंख पर किस रंग की पद्रियां बांध रखी हैं। वे 'हरी हैं कि लाल कि सफेद, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आंख पर पट्टियां हैं, ब स इतना काफी है। आपके जीवन में विचार का जन्म नहीं हो सकेगा। और हम चाहते हैं समाज के न्यस्त स्वार्थ कि मनुष्य में विचार पैदा हो। क्योकि विचार आधारभू है, वहां क्रांति का बीज है, जो विचार करेगा, वह आज नहीं कल, खुद तो क्रांति से गु जरेगा ही, उसके आसपास भी वह क्रांति की हवाएं फेकेगा।क्योकि विचार झुकने को राजी नहीं होता, विचार अंधा होने को राजी नहीं होता, विचार आंख बंद कर लेने को राजी नहीं होता।मैंने सुना है, एक गांव में एक विचारक तेली के घर तेल खरीदने गया। देखकर, उ से वहां बड़ी हैरानी हुई। तीली तो तेल तौलने लगा। उसके ही पीछे कोल्ह का बैल कोल्ह को चलाए जाता था, बिना किसी चलाने वाले के। कोई चलाने वाला न था। उस विचारक ने उस तेली से पूछा, मेरे मित्र, बड़ा अदभूत है यह बैल। बड़ा धार्मिक बड़ा विश्वासी मालम होता है। कोई चलाने वाला नहीं है और चल रहा है? उस तेली ने कहा, थोड़ा गौर से देखो, देखते नहीं, आंखें मैंने उसकी बांध रखी हैं। आंखें बंधी हैं, उसे दिखाई नहीं पड़ता कि कोई चला रहा है कि नहीं चला रहा है। चल ता जाता है। इस खयाल में है कि कोई चला रहा है। उस विचार ने कहा, लेकिन यह रुककर जांच भी तो कर सकता है कि कोई चलाता है या नहीं उस तेली ने क हा, फिर भी तुम ठीक नहीं देखते। मैंने उसके गले में घंटी बांध रखी है। जब तक चलता है, घंटी बजती रहती है। जब रुक जाता है, घंटी बंद हो जाती है, मैं फौरन
उसे जाकर फिर से हांक देता हूं, ताकि उसे यह भ्रम बना रहता है कि कोई पीछे मौजूद है।
उस विचारक ने कहा, और यह भी तो हो सकता है कि वह खड़ा हो जाए और सि र हिलाता रहे ताकि घंटी बजे। उस तेली ने कहा, महाराज, मैं आपके हाथ जोड़ता हं. आप जल्दी यहां से चले जाएं, कहीं मेरा बैल आपकी बात न सुन ले। आपकी बातें खतरनाक हो सकती है। बैल विद्रोही हो सकता है। आप कृपा करें, यहां से जा एं और आगे से कोई और दुकान से तेल खरीद लिया करें। यहां आने की जरूरत न हीं है। मेरी दूकान भली भांति चलती है, मुफ्त मुसीबत खड़ी हो सकती है।
आदमी के शोषण पर भी धर्म के नाम पर बहुत दुकानें हैं। जिन्हें हम परमात्मा के मंदिर कहते हैं, जरा भी वे परमात्मा के मंदिर नहीं हैं, दुकानें हैं. पुरोहित की ईजा द है। परमात्मा का भी कोई मंदिर हो सकता है, जो आदमी बनाए? परमात्मा के f लए भी मंदिर की व्यवस्था आदमी को करनी पड़ेगी क्या? कैसी छोटी, छोटी अजीब बात है बनाएंगे उसके लिए मंदिर? उसके निवास की व्यवस्था हम करेंगे? और ह मारे छोटे-छोटे मकानों में वह विराट समझ सकेगा? प्रवेश पा सकेगा? नहीं, यह तो संभव नहीं है। और इसीलिए जमीन पर कितने मंदिर हैं, कितने चर्च, कितनी मस्जिद, कितने गिरजे, कितने शिवालय, कितने गुरुद्वारे लेकिन धर्म कां है, परमात्मा कहां है? इस ज्यादा धार्मिक और कोई स्थिति हो सकती है, जो हमारी है? और यह मंदिर ही और मस्जिद ही और मस्जिद ही रोज अधर्म के अड्डे बन जाते हैं हत्या के, आगजनी के, बलात्कार के। इनके भीतर से ही आवाजें उठती हैं, जो मनुष्य-मनुष्य को ट्रकड़ों-ट्रकड़ों में तोड़ देती हैं। इनके भीतर से ही वे नारे आ ते हैं, जो आदमी के जीवन में हजार-हजार तरह के विद्वेष, घृणा फैला जाते हैं। हिं सा पैदा कर जाते हैं।
अगर किसी दिन, किसी आदमी ने यह मेहनत उठानी पसंद की और यह हिसाब ल गाया कि मंदिर और मस्जिदों के नाम पर कितना खून बहा है, तो आप हैरान हो जाएंगे, और किसी बात पर इतना खून कभी भी नहीं बहा है। और आप हैरान हो जाएंगे कि आदमी के जीवन में जितना दुख, जितनी पीड़ा इनके कारण पैदा हुई है और किसी के कारण पैदा नहीं हुई है। और आदमी-आदमी के बीच जो प्रेम हो सक ता था, वह असंभव हो गया है, क्योंकि आदमी-आदमी के बीच चर्च और मंदिर बड । मजबूत दीवाल की तरह आ जाते हैं। और क्या कभी हम सोचते है, कि जो दीवालें आदमी को आदमी से अलग कर देती हों, वे दीवाले आदमी को परमात्मा से मि लाने का सेतु बन सकते हैं, मार्ग बन सकती हैं? जो आदमी को ही आदमी से नहीं मिला पातीं, वह आदमी को परमात्मा से कैसे मिला पाएंगे?
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