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    सर्व स्वीकार है द्वार प्रभु का - ओशो

     

    God-accepts-the-door-Osho

    मेरे प्रिय, प्रेम। 

            आपका पत्र मिला है। मन को शांत करने के उपद्रव में न पड़ें।वह उपद्रव ही अशांति है। मन जैसा है-है। उसे वैसा ही स्वीकार करें। उस स्वीकृति से ही शांति फलित होती है। अस्वीकार है अशांति। स्वीकार है शांति। और जो सर्व स्वीकार को उपलब्ध हो जाता है, वह प्रभु को उपलब्ध हो जाता है। अन्यथा मार्ग ही नहीं है। इसे ठीक से समझ लें। क्योंकि, वह समझ (न्नदकमतेजंदकपदह) ही स्वीकृति लाती है। स्वीकृति हमारा संकल्प (रूपसस) नहीं है। संकल्प मात्र अस्वीकृति है। जो मैं करता हूं उसमें स्वीकार छिपा ही है। क्योंकि संकल्प है अहंकार। और अहंकार अस्वीकार के भोजन के विना नहीं जी सकता है। इसलिए, स्वीकार किया नहीं जाता है। जीवन की समझ स्वीकार ले आती है। देखें-जीवन को देखें। जो है-है। जैसा है, वैसा है। वस्तुएं ऐसी ही हैं (पदहे तम नबी) अन्यथा न चाहें; क्योंकि चाहें तो भी अन्यथा नहीं हो सकता है। चाह बड़ी नपुंसक है। आह! और जहां चाह नहीं है, क्या वहां अशांति है? लीना को प्रेम। टूकन को आशीष। 


    रजनीश के प्रणाम
    १६-२-१९७० प्रति : डा. एम. आर. गौतम , बनारस

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