सोचना नहीं। देखना-बस देखना - ओशो
प्रेम।
स्वयं से लड़ें न। जैसे हैं हैं। बदलने की चेष्टा न करें। जीवन में तैरें नहीं-बहें; जैसे सरिता में सूखा पत्ता। साधना से बचें। साधना मात्र से। बस यही साधना है? जाना कहां है। होना क्या है? पाना किसे हैं? जो है-वह अभी है, यहीं है। कृपया रुकें और देखें। कि प्रकृति को पशु प्रकृति कहते हैं ? क्या है निम्न? जो है-है। न कुछ नीचा है, न कुछ ऊंचा है। क्या है पाशविक? क्या है दिव्य? इसलिए न निंदा करें, न प्रशंसा। न स्वयं को कोसें और न स्वयं की पीठ थपथपाएं। सब भेद विचार के हैं। सत्य में भेद नहीं है। वहां प्रभु और पशु एक है। स्वर्ग और नर्क एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। संसार और मोक्ष एक ही अज्ञात को कहने के दो ढंग है। और मेरी बातों को सोचना मत। सोचा कि चूके। देखना-बस देखना।
रजनीश के प्रणाम
प्रति : स्वामी मोहन चैतन्य, मोगा, पंजाब
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