संन्यास की आत्मा है : अडिग, अचल और अभय होना - ओशो
प्रिय योग समाधि,
प्रेम।
संन्यास गौरी-शंकर की यात्रा है। चढ़ाई में कठिनाइयां तो हैं ही। लेकिन दृढ़ संकल्प के मीठे फल भी हैं। सब शांति और आनंद में झेलना। लेकिन संकल्प नहीं छोड़ना। मां की सेवा करना पहले से भी ज्यादा। संन्यास दायित्वों से भागने का नाम नहीं है। परिवार नहीं छोड़ना है, वरन सारे संसार को ही परिवार बनाना है। मां को भी संन्यास की दिशा में उन्मुख करना। कहना उनसे : संसार की ओर बहुत देखा अब प्रभु की ओर आंखें उठाओ। और तेरी और से उन्हें कोई कष्ट न हो, इसका ध्यान रखना। लेकिन इसका अर्थ झुकना या समझौता करना नहीं है। संन्यास समझौता जानता ही नहीं है। अडिग और अचल और अभय-यही संन्यास की आत्मा है।
रजनीश के प्रणाम
१५-१०-१९७० प्रति : मा योग, समाधि, राजकोट, गुजरात
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