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    संसार में संन्यास का प्रवेश - ओशो

      

    The-entry-of-sannyas-into-the-world-Osho

    प्रिय प्रेम कृष्ण, 

        प्रेम। 

                संन्यास की सुगंध को संसार तक पहुंचाना है। धर्मों के कारागृहों ने संन्यास के फूल को भी विशाल दीवारों की ओट में कर लिया है इसलिए, अब संन्यासी को कहना है कि मैं किसी धर्म का नहीं हूं, क्योंकि समस्त धर्म ही मेरे हैं। संन्यास को संसार से तोड़कर भी बड़ी भूल हो गई है। संसार से टूटा हुआ संन्यास रक्तहीन हो जाता है।

                और संन्यास से टूटा हुआ संसार प्राणहीन। इसलिए, दोनों के बीच पुनः सेतु निर्मित करने हैं। संन्यास को रक्त देना है, और संसार को आत्मा देनी है। संन्यास को संसार में लेना है। अभय और असंग। संसार में और फिर भी वाहर। भीड़ में और फिर भी अकेला। और संसार को भी संन्यास में ले जाना है। अभय और असंग। संन्यास में और फिर भी पलायन में नहीं। संन्यास में और फिर भी संसार में। तव ही वह स्वर्ण-सेतु निर्मित होगा जो कि दृश्य को अदृश्य से और आकार को निरा कार से जोड़ देता है। वनो मजदूर इस सेतु के निर्माण में।

    रजनीश के प्रणाम 

    १२-११-१९७० प्रति :स्वामी प्रेम कृष्ण, विश्वनीड, संस्कार तीर्थ, आजोल, गुजरात

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