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    समर्पण और साक्षी - ओशो

     

    Dedication-and-witness-Osho

    मेरे प्रिय, प्रेम। 

                प्रभु पल-पल परीक्षा लेता है। हंसो-और परीक्षा दो। वह परीक्षा योग्य मानता है, यह भी सौभाग्य है। और जल्दी न करो। क्योंकि, कुछ मंजिल जल्दी करने से दूर हो जाती हैं। कम से कम प्रभु का मंदिर तो निश्चय ही ऐसी मंजिल है। वहां धैर्य चलना ही ज्यादा से ज्यादा तीव्रता से चलना है। मन डोलेगा-बार-बार डोलेगा। वही उसका अस्तित्व है। जिस दिन डोला, उसी दिन उसकी मृत्यू है। लेकिन, कभी-कभी यह सोता भी है। उसे ही-निद्रा को ही मन की मृत्यु न समझ लेना। कभी-कभी वह थकता भी है। लेकिन, उस थकान को उसकी मृत्यु न समझ लेना। विश्राम और निद्रा से तो वह सिर्फ स्वयं को पुन: पुन: ताजा भर करता है। पर उसकी फिकर ही छोड़ो। उसकी फिकर ही उसे शक्ति देती है। उसे भी प्रभू समर्पित कर दो। प्रभू से कहो : “वूरा भला जैसा है, अब तुम ही सम्हालो।" और फिर बस साक्षी बने रहो। बस देखते रहो नाटक। मन के नाटक को तटस्थ भाव से देखते-देखते ही उस चेतना में प्रवेश हो जाता है जो कि मन नहीं हैं। 



    रजनीश के प्रणाम
    २६-११-१९७० प्रति : स्वामी प्रज्ञानंद सरस्वती, साधना-सदन, कनखल, हरिद्वार

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