ध्यान है भीतर झांकना - ओशो
प्रिय योग यशा,
प्रेम।
वीज को स्वयं की संभावनाओं का कोई भी पता नहीं होता है, ऐसा ही मनुष्य भी है। उसे भी पता नहीं है कि वह क्या है क्या हो सकता है? लेकिन, वीज शायद स्वयं के भीतर झांक भी नहीं सकता। पर मनूष्य तो झांक सकता है। यह झांकना ही ध्यान है। स्वयं के पूर्ण सत्य को अभी और यही। (भमतम :दक छवू) जानना ही ध्यान है। ध्यान में उतर-गहरे और गहरे। गहराई के दर्पण में संभावनाओं का पूर्ण प्रतिफलन उपलब्ध हो जाता है। और जो हो सकता है, वह होना शुरू हो जाता है। जो संभव है, उसकी प्रतीति ही उसे वास्तविक बनाने लगती है। वीज जैसे ही संभावनाओं के स्वप्नों से आंदोलित होता है, वैसे ही अंकुरित होने लगता शक्ति, समय और संकल्प सभी ध्यान को समर्पित कर दे। क्योंकि, ध्यान ही वह द्वारहीन द्वार जो कि स्वयं को ही स्वयं से परिचित कराता है।
रजनीश के प्रणाम
२६-११-१९७० प्रति : मा योग यशा, विश्वनीड, संस्कार तीर्थ, आजोल, गुजरात।
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