प्रेम की संपदा - ओशो
प्रिय सोहनवाई,
स्नेह।
आपका अत्यंत प्रीतिपूर्ण पत्र मिला है। आपने लिखा है कि मेरे शब्द आपके कानों में गूंज रहे हैं। उनकी गूंज आपकी अंतरात मा को उस लोक में ले जाए जहां शून्य है और सव निःशब्द है। यही मेरी कामना है। शब्द से शून्य पर चलना है : वही पहुंचकर स्वयं से मिलन होता है। मैं आनंद में हूं। मेरे प्रेम को स्वीकार करें। उसके अतिरिक्त मेरे पास कुछ भी नहीं है। वही मेरी संपदा है और आश्चर्य तो यह है कि वह एक ऐसी संपदा है कि उसे जित ना बांटो वह उतनी ही बढ़ती जाती है। वस्तुतः संपदा वही है, जो बांटने से बढ़े, जो घट जावें वह कोई संपदा नहीं है। श्री माणिकलाल जी को और सबको मेरा प्रेम कहें। पत्र दें। आप ही नहीं, पत्र की मैं भी प्रतीक्षा करता हूं।
रजनीश के प्रणाम
२-११-१९६४ प्रति : सुश्री सोहन वाफना, पूना
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