गागर में प्रेम का सागर - ओशो
प्रिय सोहन,
प्रेम।
कल आते ही तेरा पत्र खोजा था। फिर रविवार था तो भी राह देखता रहा! आ ज संध्या पत्र मिला है। कितने थोड़े से शब्दों में तू कितना लिख देती है? हृदय भरा हो तो वह शब्दों में भी वह जाता है। इसके लिए बहुत शब्दों का होना जरूरी नहीं है। प्रेम का सागर गागर में भी बन जाता है और प्रेम के शास्त्र के लिए ढाई अक्षर का ज्ञान भी काफी है! क्या तुझे पता है कि तेरे इन पत्रों को मैं कितनी बार पढ़ जाता हूं। माणिक वावू को प्रेम।
रजनीश के प्रणाम
७-६-१९६५ (रात्रि) प्रति : सुश्री सोहन, पूना
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