प्रेम शून्य हृदय की दरिद्रता - ओशो
प्यारी सोहन,
प्रेम।
तेरा पत्र मिला है। दूब में उसी जगह बैठा था, जब मिला। उस समय क्या सोच रहा था, वह तो तभी बताऊंगा जब तू मिलेगी? स्मृतियां कितनी सुवास छोड़ जाती जीवन प्रेम से परिपूर्ण हो तो कितना आनंद हो जाता है। जगत में केवल वे ही दरिद्र हैं जिनके हृदय में प्रेम नहीं है।
और, उनके सौभाग्य का क्या कहना जिनके हृदय में सिवाय प्रेम के और कुछ भी शे ष नहीं रह जाता है। संपदा और शक्ति के ऐसे क्षणों में ही प्रभू का साक्षात होता है। मैंने तो प्रेम को ही प्रभु जाना है। माणिक वावू को मेरा प्रेम पहुंचाना।
रजनीश के प्रणाम
१-६-१९६५ (प्रभात) प्रति : सुश्री सोहन, पूना
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