प्रेम ही सेवा है - ओशो
प्रिय सोहन,
तेरा पत्र मिला है। अंगुली में क्या चोट मार ली है? दीखता है कि शरीर को कोई ध्य न नहीं रखती है। और, मन के अशांत होने का क्या कारण है? इस स्वप्न जैसे जगत में मन को किसी भी कारण से अशांत होने देना ठीक नहीं है। शांति सबसे बड़ा आनं द है, और उससे बड़ी और कोई भी वस्तु नहीं है, जिसके लिए कि उसे खोया जा स के। इस पर मनन करना। सत्य के प्रति सजग होने मात्र से अंतस में परिवर्तन होते हैं
मैं सोचता हूं कि शायद मेरी सेवा के लिए उदयपूर नहीं आ सकेगी-कहीं इस कारण ही चिंतित न हो। जहां तक होगा आना हो ही जाएगा और यदि न भी आ सकी तो दुख मत मानता। क्योंकि तेरी सेवा मुझे निरंतर ही मिल रही है। किसी के प्रेम की क या काफी सेवा नहीं है? वैसे यदि तू नहीं आ पाएगी तो मुझे खाली-खाली तो बहुत लगेगा। अभी तक तो उदयपुर शिविर के साथ तेरे साथ का खयाल भी जुड़ा हुआ है।
और मुझे आशा भी है कि तू वहां आ जाएगी। माणिक वाबू को प्रेम। वहां शेष सब को मेरे प्रणाम रहना।
रजनीश के प्रणाम
२९-४-१९६५ (प्रभात) प्रति : सुश्री सोहन, पूना
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