योग साधना है सम्यक धर्म - ओशो
प्रिय वहिन,
प्रणाम।
आपका पत्र मिला है। मैं प्रतीक्षा में ही था। राजनगर की यात्रा आनंदपूर्ण रही है। धर्म साधना योग की दिशा को छोड़ केवल नैतिक रह गयी है; उससे उसे प्राण खो गए हैं। नीति नकारात्मक है और केवल नकार पर जीवन की बुनियाद नहीं रखी जा सकती है। अभाव प्राण नहीं दे सकता है। छोड़ने पर नहीं, पाने पर जोर आवश्यक है। अज्ञात को छोड़ने की जगह ज्ञान को पाने को केंद्र बनाना है। यह साधना से ही हो सकता है। ऐसी साधना योग से उपलब्ध होती है। आचार्य श्री तलसी मनि श्री न थुमल जी आदि से हुई चर्चाओं में मैं इतनी वात पर जोर दिया हूं। राजनगर तथा रा जस्थान से इस संबंध में बहुत से पत्र भी आ रहे हैं; जैसा कि आपने लिखा है; लगता है कि वहां आने से कुछ सार्थक कार्य हुआ है। इतना स्पष्ट दिख रहा है कि लोग आ त्मिक जीवन के प्यासे हैं और प्रचलित धर्म के रूप उन्हें तृप्ति नहीं दे पाते हैं। और सम्यक धर्म का रूप उन्हें दिया जा सके तो मानवीय चेतना में एक क्रांति घटित हो स कती है। आपकी स्मृति आती है। ईश्वर आपको शांति दे। सबको मेरा प्रेम और प्रणाम कहें।
रजनीश के प्रणाम
१०-२-१९६३ प्रति : सुश्री जया शाह, बंबई
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