शून्य है द्वार प्रभु का - ओशो
प्रिय बहिन,
प्रणाम।
मैं प्रतीक्षा में ही था कि पत्र मिला है। जीवन में आपके प्रकाश भर जाए और आप प्रभु को समर्पित हो सकें यही मेरी कामना है। प्रभू और प्रकाश निरंतर निकट हैं, बस आंख भर खोलने की बात है और-जो हमारा है वह हमारा हो जाता है। आंख की पलकों का ही फासला है-याकि, शायद उतना भी फासला नहीं है, आंखें खुली ही हैं और हमें ज्ञात नहीं है। एक पुरानी कथा है : एक मछली बहुत दिनों से सागर के संबंध में सुनती रही थी। फर एक दिन उससे न रहा गया और उसने मछलियों की रानी से पूछ लिया कि यह सागर क्या है ? और कहा है ? रानी बोली थी : सागर? सागर में ही तुम हो, (सागर में ही) तुम्हारा जीवन, तुम्हारा सत्ता है। सागर तुमने है और तुम्हारे बाहर भी जो है वह भी सागर है। सागर से तुम बनी हो और उसमें ही तुम्हें विलीन होना है। सागर तुम्हारा सब कुछ है और उसके अतिरिक्त तुम कुछ भी नहीं हो। और शायद इसलिए ही सागर मछली को दिखाई नहीं पड़ता है? और शायद इसलिए ही प्रभु से हमारा मिलन नहीं होता है? पर मिलन हो सकता है। उस मिलन का द्वार शून्य है, शून्य होते ही उससे मिलना हो जाता है क्योंकि वह भी शून्य ही है। मैं आनंद में हूं : याकि कहूं कि आनंद ही है और मैं नहीं हूं।
रजनीश के प्रणाम
१२-१-१९६३ प्रति : सुश्री जया बेन शाह, बंबई
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