स्वप्निल मूर्छा-ग्रंथि - ओशो
प्रिय वहिन,
प्रणाम।
आपका पत्र मिले देर हो गई है। मैं शांति पाने की आपकी भावना से आनंद से भर जाता हूं। यह विचार अपने से अलग कर दें कि आप पीछे हैं। कोई पीछे नहीं है : जरा सा भीतर मुड़ने की बात है और बूंद सागर हो जाती है। वस्तुतः तो बूंद सागर ही है पर उसे यह ज्ञात नहीं है। इतना सा ही भेद है। ध्यान के शून्य में जो दर्शन होता है उससे यह भेद भी पूछ जाता है। ध्यान जीवन साधना का केंद्र है। विचार प्रवाह धीरे-धीरे चला जाएगा और उसके स्था न पर उतरेगी शांति और शून्यता। विचार गए तो जो द्रष्टा है, साक्षी है उसके दर्शन होंगे और मूर्छा की ग्रंथि खुली जाएगी। इस ग्रंथि से ही बंधन है। यह ग्रंथि प्रारंभ में पत्थर सी दीखती है और धैर्य से प्रयोग करता साधक एक दिन पाता है कि वह बिल कूल स्वप्न थी-हवा थी। ध्यान का बीज एक दिन समाधि के फूल में खिले मेरी यही आपके प्रति कामना है। सवको मेरे विनम्र प्रणाम कहें। इला कैसी है? शेष मिलने पर।
रजनीश के प्रणाम।
१४-१२-६२ प्रति : श्री जया शाह, बंबई
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